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मोह का महल ढहेगा ही maya moh nirakaran-bhagwat Pravchan hindi

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||मोह का महल ढहेगा ही ||  ( महल खंडहर ) एक सच्ची घटना है- नाम और स्थान नहीं बतलाना है, उसकी आवश्यकता भी नहीं है | एक विद्वान सन्यासी मंडलेश्वर थे उनकी बड़ी अभिलाषा थी गंगा किनारे आश्रम बनवाने की | बड़े परिश्रम से कई वर्ष की चिंता और चेष्टाके परिणाम स्वरूप द्रव्य एकत्र हुआ | भूमि ली गई, भवन बनने लगा विशाल भव्य भवन बना आश्रम का और उसके गृह प्रवेश का भंडारा भी बड़े उत्साह से हुआ | सैकड़ों साधुओं ने भोजन किया,  भंडारे की झूठी पत्तलें फेंकी नहीं जा सकी थी, जिस चूल्हे पर उस दिन भोजन बना था, उसकी अग्नि बुझी नहीं थी | गृह प्रवेश के दूसरे दिन प्रभात का सूर्य स्वामी जी ने नहीं देखा उसी रात्रि उनका परलोक वास हो गया | यह कोई एक घटना हो, ऐसी तो कोई बात नहीं है | ऐसी घटनाएं होती रहती हैं | हमें इसे देखकर भी ना देखें------ कौड़ी कौड़ी महल बनाया लोग कहे घर मेरा | ना घर मेरा ना घर तेरा चिड़िया रैन बसेरा || यह संतवाणी जिनकी सत्य है यह कहना नहीं होगा | जिसे हम अपना भवन कहते हैं क्या वह हमारा ही भवन है ? जितनी आसक्ती, जितनी ममता से हम उसे अपना भवन मानते हैं, उतनी ही आसक्ती...

भगवद्भक्ति bhagwan ki bhakti in hindi

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भगवद्भक्ति bhagwan ki bhakti in hindi जिसने मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीहरिकी भक्ति की है, उसने बाजी मार ली, उसने विजय प्राप्त कर ली, उसकी निश्चय ही जीत हो गयी-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी ही भलीभाँति आराधना करनी चाहिये । हरिनामरूपी महामन्त्रोंके द्वारा पापरूपी पिशाचोंका समुदाय नष्ट हो जाता है। एक बार भी श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करके मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं तथा सम्पूर्ण तीथों में स्नान करनेका जो फल होता है, उसे प्राप्त कर लेते हैं—इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । मनुष्य श्रीहरिकी प्रतिमाका दर्शन करके सब तीर्थोंका फल प्राप्त करता है तथा विष्णुके उत्तम नामका जप करके सम्पूर्ण मन्त्रोंके जपका फल पा लेता है । द्विजवरो ! भगवान् विष्णुके प्रसादस्वरूप तुलसीदलको सूंघकर मनुष्य यमराजके प्रचण्ड एवं विकराल मुखका दर्शन नहीं करता । एक बार भी श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला मनुष्य पुनः माताके स्तनोंका दूध नहीं पीता उसका दूसरा जन्म नहीं होता ।  जिन पुरुषोंका चित्त श्रीहरिके चरणोंमें लगा है, उन्हें प्रतिदिन मेरा बारंबार नमस्कार है । पुल्कस, श्...

bhagwat katha in hindi ,-22

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 bhagwat katha in hindi ,भाग-22 जिह्वां क्वचित् संदशति स्वदद्भिस्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत् ।  (भा.मा. 11/23/51) यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित् क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे ॥  (भा.मा. 11/23/52)  किस पर क्रोध करें, ये ज्ञान हो जाने से संत अजातशत्रु हो जाता है। वह किसी से वैर नहीं करता। क्योंकि, सीय राममय सब जग जानि ।  करहु प्रणाम जोरि जुग पानी ॥  (रामचरितमानस 1/8/1)  कपिल भगवान् कहते हैं, माँ ! ऐसे संतों के संग में रहने से सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हत्कर्णरसायनाः कथाः । तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ (भा. 3/25/25)  उन संतों के बीच में बैठोगे, तो चौबीसों घंटे वह मेरी महिमा सुनायेंगे मेरी मधुर-मधुर कथा सुनायेंगे। नाम की महिमा, रूप की महिमा, स्वभाव की महिमा, प्रभाव की महिमा, भगवान् की कृपालुता की महिमा, भगवान् के करुणामय स्वभाव की महिमा, इतनी सुनायेंगे कि सुन-सुनकर आप अपने आप ही दीवाने हो जाओगे। श्रद्धा रतिः भक्तिः' - अपने आप भगवान् की महिमा सुनकर श्रद्धा उत्पन्न होगी, फिर धीरे-धीरे...

bhagwat katha in hindi -21

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sampurna bhagwat katha in hindi ,भाग-21 एक दिन देवहूति माँ अपने पुत्र के पास आई और बोली, बेटा! निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात् । येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ॥ (भा. 3/25/7)   माता देवहूति पूछती हैं, हे प्रभो! संसार में जितना सुख मैंने भोगा, इतने सुख की कोई स्त्री कल्पना भी नहीं कर सकती भोगना तो दूर रहा। हर प्रकार की अनुकूलता, हर प्रकार का वैभव-मायके में मैं राजकुमारी बनकर ठाठ से रही। ससुराल में भी कर्दम-जैसे परमयोगी संत पति मिले, कामद विमान में दिव्य भोगों का सेवन कराया। परन्तु इतना सब पाने के बाद भी मेरी आत्मा अतृप्त है, मेरा मन अभी भी असंतुष्ट है। बेटा! आज मैं तुझे केवल अपना बेटा नहीं समझ रही। सुना है तू तो साक्षात् भगवान् है, ब्रह्मज्ञान सम्पन्न है। मैं चाहती हूँ कि अपने ज्ञान का खड्ग उठाकर मेरे अज्ञान के वृक्ष को जड़ सहित नष्ट कर दो। मैं तुम्हारी शरण में हूँ। (भा. 3/25/11)  कपिल भगवान् ने आठ अध्यायों में बड़ा ही अद्भुत सांख्ययोग का उपदेश दिया। इन आठ अध्यायों को कपिलाष्टाध्यायी कहते हैं। कपिल भगवान् कहते हैं, माँ ! संसार में...

sampurna bhagwat katha in hindi -19

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sampurna bhagwat katha in hindi भाग-19 ,part-19 नाहं तथादिम यजमानहविर्विताने श्च्योतद्धृतप्लुतमदन्हुतभुङ्मुखेन ।  यद्ब्राह्यणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकैः ॥  (भा. 3/16/8) भगवान् कहते हैं, वैसे तो ये दोनों ही मुख मेरे हैं।  परन्तु दोनों में जितना कि ब्राह्मण मुख से पाकर मैं तप्त होता हूँ, इतना अग्नि के स्वाहाकार से प्रसन्न नहीं होता। स्पष्ट भगवान् ने कह दिया, घी से लबलवाया हुआ मालपुआ जब ब्राह्मण के मुख में जाता है, तो उसकी तृप्ति को देखकर मैं गद्गद् हो जाता हूँ, वह मेरा प्रत्यक्ष मुख है। बड़ी प्रशंसा भगवान् ने यहाँ पर ब्राह्मणों के लिये की। और सनकादियों को सम्मानपूर्वक नमन करके विदा किया। सनकादियों के शाप से वे ही भगवान् के पार्षद जय और विजय आज दिति माँ के गर्भ में आ चके हैं। ये सारा रहस्य ब्रह्माजी ने देवताओं को बताते हुए कहा, आप लोग घबड़ाइयेगा नहीं, भगवान् नारायण कृपा करेंगे। समय आने पर उनका उद्धार करेंगे। बाकि उनका सामना और कोई नहीं करने वाला। देवता बेचारे काल-प्रतीक्षा करने लगे। सौ वर्षों बाद दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया, ...

bhagwat katha in hindi भाग-20

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sampurna bhagwat katha in hindi ,भाग-20 कपिलोपाख्यान श्रीमद्भागवत में मनु-शतरूपा की तीन बेटियों का वंश पहले सुनाया गया, बेटों की बात बाद में की गई है। तीनों बेटियों में मझली बेटी देवहूति का विवाह कर्दमजी के साथ में हुआ। कर्दमजी ने विवाह के समय एक शर्त रखी कि एक संतान होते ही मैं विरक्त हो जाऊँगा। देवहूति ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। हर्षोल्लासपूर्वक विवाह सम्पन्न हुआ। पुत्री से विदा लेकर माता-पिता तो अपनी नगरी को लौट गये, पर शादी होते ही कर्दमजी समाधि लगाकर बैठ गये। कई वर्षों तक अखण्ड समाधि लगी रही, तो देवहूति अपना सारा श्रृंगार उतारकर पति की सेवा में समर्पित बनी रही। कई वर्षों के बाद जब समाधि खुली कर्दमजी ने देवहूति को देखा। देवहूतिजी को देखकर कदमजी तो गद्गद् हो गये। तुष्टोऽहमद्य तव मानवि मानदायाः शुश्रूषया परमया परया च भक्त्या । यो देहिनामयमतीव सुहृत्स्वदेहो नावेक्षितः समुचितः क्षपितुं मदर्थे ॥  (भा. 3/23/7)  कर्दमजी बोले, हे मानवी! अरी मनुपुत्री! हम तेरी सेवा से बड़े प्रसन्न हुए। संसार में व्यक्ति को अपना शरीर सबसे ज्यादा प्यारा लगता है। पर तुमने तो म...

भागवत पुराण हिंदी में bhagwat puran hindi men 18

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sampurna bhagwat katha in hindi भाग-18 ,part-18  मनु -शतरूपा से ही मानवी-सृष्टि का विस्तार हुआ। इसलिये मनुपुत्र होने के नाते ही हम लोग मानव कहलाते हैं। जो लोग हमें मनुवादी कहकर पुकारते हैं, इसका मतलब वह अपने को मनुपुत्र नहीं मानते। तो वह अपना स्वयं हिसाब लगा कि वह अपने को किसकी सन्तान मानते हैं। अरे! मानवमात्र मनु के पुत्र हैं। मनु-शतरूपा से पाँच सन्तानें हुई, उनमें दो बेटा और तीन बेटी हैं।  बेटियों के नाम है - आकूति, देवहूति और प्रसूति तथा बेटों के नाम हैं - प्रियव्रत और उत्तानपाद। पर एक दिन मनु महाराज ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। भगवन् ! सृष्टि का मैं विस्तार तो करना चाहता हूँ, पर कैसे करूँ? महाराज! हिरण्याक्ष राक्षस पृथ्वी का ही हरण करके ले गया। तब ब्रह्माजी ध्यान लगाया, ध्यान लगाते ही उन्हें बड़ी तेज छींक आई। छींकते ही उनकी नासिकारन्ध्र से भगवान् का वाराह रूप में प्राकट्य हो गया। देखते-देखते वाराह भगवान् का पर्वताकार देह हो। गया। देवताओं ने स्तवन किया, हिरण्याक्ष का वध करके भगवान् ने पृथ्वी का उद्धार किया। विदुरजी ने मैत्रेयजी से पूछ दियाकि भगवन ! कृपा करके...

sampurna bhagwat katha in hindi 17

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sampurna bhagwat katha in hindi [ भाग-17,part-17]   कभी -कभी सड़क पर गाड़ी से चलते गर्मियों में देखियेगा, सूर्य की रश्मियों के पडने से ऐसा लगता है कि जैसे जल सड़क पर पड़ा हो। पर पानी एक बूंद भी नहीं होता। और दूर से देखो, तो स्पष्ट जल ही नजा आयेगा। वही मृगतृष्णा कहलाती है। प्यासा सरोवर के तट पर खड़ा है। जहाँ पानी भरा है, वहाँ पानी दिख नहीं रहा। और जहाँ पानी दिख रहा है, वहाँ पानी की बूंद नहीं है। तो भ्रम में पड़ गया। पानी जहाँ दिख रहा था. वहाँ दौड़ पड़ा तो रेगिस्तान में भटकता-भटकता मर गया। पानी का तट छोड़कर रेगिस्तान में पानी पीने गया। यही हालत हम लोगों की है। भीतर हमारे प्रभु ने आनन्द का सागर भर रखा है, पर उस आनन्द के सागर में अज्ञानता की काई लगी हुई है इसलिए दिख नहीं रहा, समझ में नहीं आ रहा। और बाहर के विषयों में आनन्द का भ्रम है। सुख का भ्रम है। मानस 7/117/1,  जीव जो सहज ही सुखराशि था जिसके भीतर आनन्द-ही-आनन्द और सुख सब भरा हुआ था पर अज्ञा की परत के कारण दिखा नहीं। बाहर के विषयों में सुख का भ्रम हो गया, सो बाहर ढूँढने लगे। ये मिल जाये तो सुखी हो जाऊँ वह आ जा...

श्रीमद भगवत कथा हिंदी -16

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bhagwat-भागवत  [ भाग-16 ,part-16 ] कालेन तावद्यमुनामुपेत्य तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श।  भगवान् के परमप्रिय महाभागवत सखा श्रीउद्धवजी से भेंट हुई, अरे ! भैया उद्धव बताओ कैसे हो? अनेकानेक प्रश्न कर दिये, भैया ! उस महाभारत का क्या हुआ? ये तो बताओ ! मैं तो छोड़कर ही चला गया था। और द्वारिका में कौन-कौन हैं? कैसे हैं? हमारे प्यारे प्रभु तो आनन्द के साथ हैं न? जब सभी की कुशलता के अनेक प्रश्न कर डाले, तो उद्धवजी के नेत्र बंद हो गये। विदुरजी बोले, क्या हुआ भैया? भगवान् के प्रेम में उद्धवजी की तो समाधि लगी जा रही है। जैसे-तैसे विदुरजी ने उन्हें सावधान किया, तब उद्धवजी होश में आये। _ शनकै गवल्लोकान्नलोकपुनरागतः।  भगवान् के ध्यान में उनके धाम को चले गये थे। लौटकर उद्धवजी पुनः अपने होश में आये और तब उद्धवजी ने पूरा समाचार विस्तार से विदुरजी को सुनाया, महाराज विदुर! आपको कुछ नहीं मालूम? अरे! महाभारत कब का सम्पन्न हो गया? पाण्डव विजयी हो गये और गोविन्द भी अपनी सम्पूर्ण लीला का संवरण करके परमधाम को प्रस्थान कर गये। धिक्कार है! जबतक प्रभु धराधाम पर रहे, कोई उनके स्वर...

भागवत पुराण -15

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॥ तृतीयः स्कन्धः॥ bhagwat-भागवत  [ भाग-15 ,part-15 ] (सर्ग) विदुर चरित्र : परीक्षितजी ने पूछा, महाराज! श्रीविदुरजी का चरित्र हमें सुनाइये। शुकदेवजी कहते हैं, यदा तु राजा स्वसुतानसाधून् पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः । भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून् प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥  (भा. 3/1/6) जिस समय राजा धृतराष्ट्र बिल्कुल अंधे हो चुके थे, अंधे तो वह बचपन से ही थे, बाहर की आँखे तो पहले से ही फूटी हुई थीं। पर पुत्र के प्रेम में इतना मोह छा गया कि भीतर की आँखें भी बंद हो गईं, ज्ञान विराग नयन उर गारी  अर्थात् ज्ञान-वैराग्य के जो दूसरे नेत्र हैं, वह भी आज नष्ट हो गये। राजा धृतराष्ट्र अधर्म का पोषण कर रहे हैं, अधर्म का आश्रय ले रहे हैं इसलिये उनके विवेक के नेत्र भी नष्ट हो गये। श्रीविदुरजी महाराज ने समझाने का प्रयास किया। विदुरजी महाराज धर्मावतार हैं, श्रीयुधिष्ठिरजी महाराज भी धर्मावतार हैं।  कौरव पक्ष में विदुर के रूप में धर्म है, पाण्डव पक्ष में युधिष्ठिर के रूप में धर्म है – दोनों की ओर धर्म है। पर अन्तर क्या है? फिर पाण्डव विजयी क्यों ह...

bhagwat - भागवत -14

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bhagwat-भागवत  [ भाग-14 ,part-14  ] किशोरीजी सखियों के साथ पूजा करने पुष्प वाटिका ही गई थीं। पर ‘एक सखी सिय संगु बिहाई'  (रामचरितमानस 1/228/4)  वह पूजा-पाठ छोड़कर घूमने के लिये बगीचा में निकल पड़ी। तो जो घूमने निकली थी, उसी को परमात्मा सबसे पहले मिले। और उसी की कृपा से अन्य सखियों को मिले। तो अब यह कानून नहीं लगा सकते कि पूजा न करने से ही भगवान् मिलते हैं, ये कोई नियम नहीं हो गया। भगवान की कृपा कैसे हो जाये? घर में रहने वालों को न मिलें और घर में रहने वालों को पहले मिल जायें और वन में घूमते-घूमते वर्षों बीत गये नहीं मिले। विश्वामित्रजी ने घर त्यागा और वन में खूब भटके, तपस्यायें की दरो ब्रह्मा बनने की सामर्थ्य तक इनमें आ गया तपस्या करते-करते। और दशरथजी महाराज घर में ही रहे और रामजी घर में ही आ गये। तब विश्वामित्र बाबा ने जो घर त्याग रखा था, उसी घर में वापिस आकर विश्वामित्रजी को रामजी का दर्शन मिला। तो घर में मिलेंगे कि वन में मिलेंगे, पूजा करने से मिलेंगे कि बिना पूजा किये ही मिल जायेंगे कृपा के ऊपर कोई नियम नहीं है। कृपा तो कब हो जाये? किस पर हो जाये? ...

bhagwat katha in hindi -13

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bhagwat katha in hindi  [ भाग-13,part-13 ] भाई! कुंभकार के पास मिट्टी होगी , तभी तो वह घड़ा, सकोरा, आदि बनायेगा? ज्वैलर्स के पास जब सोना होगा, तभी तो कड़ा, कुण्डल, आदि आभूषण बनायेगा। अकेला तो वह कुछ नहीं बना सकता? पर भगवान् तो सर्वथा अकेले थे इसलिये बने भी वही और बनाये भी वही। जगत् में कई कार्य ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका निमित्तकारण और उपादानकारण एक ही होता है। वैसे तो अलग-अलग होते हैं। कुम्हार ने मिट्टी से घड़ा बनाया, तो घड़े का उपादान-कारण क्या हुआ? वह मिट्टी जिससे घड़ा बनाया गया। पर मिट्टी अपने आप तो घड़ा नहीं बन गई? किसने बनाया? कुंभकार ने। तो कुंभकार हो गया निमित्त-कारण। बनाने वाला निमित्त-का और बनने वाला उपादान-कारण, तब कार्य सिद्ध होता है। ज्वेलर है निमित्त-कारण, सोना है उपादान-कारण तब बनकर तैयार हुआ - आभूषण। निमित्तकारण और उपादानकारण एक ही हो जिसका, ऐसा कोई प्रमाण? मोर का पंख या मकडी का जाला। मकड़ी का जो जाला है, उसका निमित्त कारण भी मकड़ी है और उपादान-कारण भी मकडी है। मकड़ी कोई बाजार से धागा खरीदकर तो लाती नहीं है जाला बनाने के लिये? वह जाल भी तो अपने द्वारा ...