भागवत पुराण -15

॥ तृतीयः स्कन्धः॥
bhagwat-भागवत 
[ भाग-15 ,part-15 ]
(सर्ग)
विदुर चरित्र :परीक्षितजी ने पूछा, महाराज! श्रीविदुरजी का चरित्र हमें सुनाइये। शुकदेवजी कहते हैं,
यदा तु राजा स्वसुतानसाधून् पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः ।
भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून् प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥ 
(भा. 3/1/6)
जिस समय राजा धृतराष्ट्र बिल्कुल अंधे हो चुके थे, अंधे तो वह बचपन से ही थे, बाहर की आँखे तो पहले से ही फूटी हुई थीं। पर पुत्र के प्रेम में इतना मोह छा गया कि भीतर की आँखें भी बंद हो गईं,
ज्ञान विराग नयन उर गारी 
अर्थात् ज्ञान-वैराग्य के जो दूसरे नेत्र हैं, वह भी आज नष्ट हो गये। राजा धृतराष्ट्र अधर्म का पोषण कर रहे हैं, अधर्म का आश्रय ले रहे हैं इसलिये उनके विवेक के नेत्र भी नष्ट हो गये। श्रीविदुरजी महाराज ने समझाने का प्रयास किया।

विदुरजी महाराज धर्मावतार हैं, श्रीयुधिष्ठिरजी महाराज भी धर्मावतार हैं। 
कौरव पक्ष में विदुर के रूप में धर्म है, पाण्डव पक्ष में युधिष्ठिर के रूप में धर्म है – दोनों की ओर धर्म है। पर अन्तर क्या है? फिर पाण्डव विजयी क्यों हुए? और कौरवों का पराभव क्यों हुआ? क्योंकि कौरवों के पक्ष में जो धर्म है, उसकी विडम्बना यह है कि कौरव जैसा चाहते हैं, विदुरजी को वैसा करना पड़ेगा।

विदुरजी धर्म का रास्ता दिखाते हैं, समझाते हैं पर न कोई मानने वाला है, न कोई चलने वाला है। दुर्योधन, आदि चाहते हैं कि विदुर हमारे अनुसार चलें न कि हम विदुर के अनुसार नहीं चलें। तो भैया! धर्म तब हमारी रक्षा करेगा, जब धर्म के अनुसार हम चलेंगे।
'धर्मो रक्षति रक्षितः' 
धर्म की पहले आप रक्षा कीजिये, तब धर्म आपकी रक्षा करेगा। माता जानकी पंचवटी में थीं और साधु वेष बनाकर रावण जब आया, भिक्षा मांगी, तो किशोरीजी ने सोचा, क्या किया जाये? मेरे देवरजी कहकर गये हैं कि ये निशाचरों की माया समझ में नहीं आती।

माँ! यहाँ से बाहर मत निकलना, रेखा का उल्लंघन न करना। और ये साधू कह रहा है कि मैं बंधी भिक्षा नहीं लूंगा, रेखा से बाहर आकर मुझे भिक्षा दो। यदि मैंने भिक्षा नहीं दी तो मेरा धर्म नष्ट होगा कि गृहस्थ के घर से कोई भिक्षुक बिना कछ लिये चला जाये। चलो! मुझे तो अपने धर्म की रक्षा करनी ही चाहिये। और रेखा का उल्लंघन करके जैसे ही भिक्षा दी, रावण तो हरण करके ले गया।
किसी ने किशोरीजी से शंका की - 
आपने तो धर्म की रक्षा की, अब आपकी रक्षा कौन करेगा? किशोरीजी ने समाधान दिया - जिस धर्म की मैंने रक्षा की है, वही धर्म मेरी उभा करेगा।

और उसी धर्म रक्षा के बल पर लंकेश्वर को भी किशोरीजी उसी के घर में बैठकर ललकार रही हैं- ये है धर्म रक्षा का बल। जिस रावण के बल से सारा जगत् कांपता था, किशोरीजी उसे तिनका दिखा कर ललकार रही कि तेरी औकात मेरे सामने तिनके के समान है, क्योंकि मैंने अपने धर्म का पालन किया है।

पाण्डवपक्ष में महाराज युधिष्ठिर के रूप में जो धर्म है, धर्मराज जो कहते हैं पाण्डव आँख मूंदकर उसे मानते हैं। धर्मराज की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला पाण्डवों में कोई नहीं। पर कौरवपक्ष में धर्म की बात कोई सुनने वाला नहीं, विदुरजी चिल्ला-चिल्लाकर परेशान हो गये।

यही कारण था कि कौरव मारे गये और धर्म के आश्रित पाण्डवों की रक्षा हुई।
'यतो धर्मस्ततो जयः' 
विदुरजी ने एक बार धृतराष्ट्र को बहुत समझाया, महाराज ! ये जो आपका बेटा दुर्योधन है, जिसके मोह में आप इतने अंधे हो रहे हैं, ये मूर्तिमान् कलियुग है। और नीति कहती है कि भाई! हाथ में यदि कोई खतरनाक फोड़ा हो जाये, किसी भी प्रकार से ठीक होने वाला नहीं हो और डाक्टर साहब कहते हैं, हाथ कटवा दो तो बच जाओगे।

तो बद्धिमानी इसी में है कि सम्पूर्ण शरीर की रक्षा के लिये एक अंग को काट दो। कोई भी काटना नहीं चाहेगा, अपना हाथ। पर परिस्थिति आ जाये, तो काटना ही पड़ेगा।

एक के त्यागने से अनेकों का हित हो, तो एक को निकाल देना चाहिये, त्याग देना चाहिये। दुर्योधन यदि आपकी आज्ञा का उल्लंघन करता है और इसके कारण महाभारत का समर पैदा होता है, तो निकाल दो इस दुर्योधन को। दुर्योधन ने सुना तो आग बबूला हो गया।

और दरबार में ही आकर विदुरजी को बुरी तरह डाँटना-फटकारना प्रारम्भ कर दिया, ऐ दासीपुत्र ! तेरी ये औकात? हमारे टुकड़ों पर पलने वाला आज हमें ही घर से निकलवा रहा है?

 क एनमत्रोपजुहाव जिह्यं दास्याः सुतं यद्बलिनैव पुष्टः 
हमारे टुकड़ा खाने वाला हमारे पिता को हमारे विरुद्ध भड़का रहा है। भगाओ इसे यहाँ से। विदुरजी समझ गये कि वाह ! दुर्योधन इतना सब कह रहा है और धृतराष्ट्र महाराज चुपचाप मौन बैठे हैं? इसका मतलब इन्हें भी हमारे परामर्श की आवश्यकता नहीं है। ___सचिव जब चाटुकार हो जाये, तो समझ लो कि अब राजा के पतन में विलम्ब नहीं है।

डॉक्टर साहब मरीज की रुचि के अनुसार मीठी-मीठी बातें करने लगें तो समझ लो कि बीमारी मिटने वाली नहीं है। गुरुदेव चेला का रुख देखकर हाँ-में-हाँ मिलाने लग जायें तो समझ लो चेला का कभी कल्याण नहीं हो सकता।
सचिव, वैद्य, और गुरु - तीनों को जिसमें हित दिखाई पड़े, वही कहना चाहिये। यदि वह मुँह देखी ठुकुर-सुहाती करने लगे, तो निश्चित रूप से तीनों का हित नहीं।' विदुरजी समझ गये कि हमारे परामर्श की आवश्यकता नहीं रह गई, अब हमें चलना चाहिये। तो, दोहा- 
सचिव वैद गुरु तीन जो प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तनु तीन करि होहिं वेगि ही नास।। 

स्वयं धनुरि निधाय मायां गतव्यथोऽयादुरु मानयानः ।
स निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो गजाह्वयात्तीर्थपदः पदानि ॥ 
(भा. 3/1/16) 

श्रीविदुरजी महाराज ने अपने धनुष-बाण सब देहरी पर दरवाजे पर रख दिये। अब धनुष-बाण क्यों दरवाजे पर रख दिये? इसलिए रख दिये कि यदि ले के साथ में जाऊँगा, तो कहीं कौरव ये न समझ बैठे कि शायद शत्रुओं से मिलने जा रहे हैं।

इसलिये धनुष-बाण दरवाजे पर रख कर कह दिया कि हम तो अब निष्पक्ष होकर जा रहे हैं। शुकदेव बाबा कहते हैं, राजन ! ये केवल विदुरजी नहीं जा रहे हैं। 'निर्गतः कौरवपुण्यलब्धो' मानो आज कौरवों का समस्त पुण्य ही उन्हें छोड़कर जा रहा हो। जबतक निशाचरों में, राक्षसों में श्रीवित लंका में रहे तबतक उन राक्षसों का हित रहा। और जैसे-ही श्रीविभीषणजी ने राक्षसों का परित्याग श्रीगोस्वामीजी ने संकेत दिया कि-
अस कहि चला बिभीषनु जबहिं। 
आयुहीन भए सब तबहिं ॥ 
(मानस 5/42/1) 

विभीषण ने लंका को त्यागा कि निशाचर आयुहीन हो गये। 
विदुरजी ने कौरवों का परित्याग किया तो आज कौरव भी पुण्यहीन हो गये। विदुरजी ने गृहत्याग किया और तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े। तीर्थाटन करते-करते बहुत समय बाद यमुना के तट पर जा रहे थे कि अचानक उद्धवजी से भेंट हो गई।


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