bhagwat katha in hindi -13
bhagwat katha in hindi
[ भाग-13,part-13 ]
भाई! कुंभकार के पास मिट्टी होगी, तभी तो वह घड़ा, सकोरा, आदि बनायेगा? ज्वैलर्स के पास जब सोना होगा, तभी तो कड़ा, कुण्डल, आदि आभूषण बनायेगा। अकेला तो वह कुछ नहीं बना सकता?पर भगवान् तो सर्वथा अकेले थे इसलिये बने भी वही और बनाये भी वही।
जगत् में कई कार्य ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका निमित्तकारण और उपादानकारण एक ही होता है। वैसे तो अलग-अलग होते हैं। कुम्हार ने मिट्टी से घड़ा बनाया, तो घड़े का उपादान-कारण क्या हुआ? वह मिट्टी जिससे घड़ा बनाया गया। पर मिट्टी अपने आप तो घड़ा नहीं बन गई? किसने बनाया? कुंभकार ने।
तो कुंभकार हो गया निमित्त-कारण। बनाने वाला निमित्त-का और बनने वाला उपादान-कारण, तब कार्य सिद्ध होता है। ज्वेलर है निमित्त-कारण, सोना है उपादान-कारण तब बनकर तैयार हुआ - आभूषण।
निमित्तकारण और उपादानकारण एक ही हो जिसका, ऐसा कोई प्रमाण? मोर का पंख या मकडी का जाला। मकड़ी का जो जाला है, उसका निमित्त कारण भी मकड़ी है और उपादान-कारण भी मकडी है। मकड़ी कोई बाजार से धागा खरीदकर तो लाती नहीं है जाला बनाने के लिये? वह जाल भी तो अपने द्वारा ही प्रकट करती है। तो धागा भी उसी ने प्रकट किया और उसकी रचना भी उसी ने की।
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अतः निमित्तकारण भी वही, उपादानकारण भी वही। उसी प्रकार मोर ने जो पंख तैयार किया, बनाने वाला भी वही, बनने वाला भी वही। तो जैसे मोर अपने पंख का अभिन्निमित्तोपादान कारण है, मकड़ी अपने जाले का अभिनिमित्तोपादान कारण है ऐसे-ही परमात्मा ही इस जगत् के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण हैं। जगत् को बनाने वाले भी वही और जगत् के रूप में बनने वाले भी वही।
ये सारा जगत् उसी का विलास है, वही जगत् के रूप में अभिव्यक्त है, अब जो तत्त्ववेत्ता महापुरुष हैं, वह घड़े-सकोरे, आदि जो मिट्टी के बने हुए हैं; उन सब में वह मिट्टी को ही देखते हैं। व्यवहार की दृष्टि से नाम भले ही अलग-अलग हो गये कि ये सकोरा है, ये कुल्हड़ है, ये मटका है, ये सुराही है, ये दीपक है। पर तत्त्वतः देखा जाये तो सब मिट्टी है। सब मिट्टी के ही विविध नाम-रूप हैं।
ऐसे ही नाम-रूप तो अलग-अलग है, ये स्त्री है, ये पुरुष है, ये कुत्ता है, ये बिल्ली है, ये चूहा है, ये शेर है। पर तत्त्वतः जो देखा जाये, तो सब परमात्मा का ही विलास है।
एक बार एक महात्मा एक गली से जा रहे थे, तो मकान में कुछ बच्चों की आपस में लड़ने की आवाज सुनाई पड़ी। बच्चे लड़ रहे थे, पर लड़ने की जब बातें सुनीं, तो बाबा के होश उड़ गये। बच्चे लड़ते हुए कह रहे थे कि देख! शेर मैं खाऊँगा, दूसरा बोला, तो ठीक है हाथी हम खा लेंगे।
बाबा ने कहा, गजब के बालक हैं। शेर और हाथी को खाते हैं? कौतुकवश वह महात्मा ने भीतर घुसकर देखा तो, सचमुच बच्चे लड़ रहे थे, बात भी ठीक कह रहे थे। पर जो शेर और हाथी खाने की बात कर रहे थे, वह सब खाण्ड-शक्कर के थे। दीवाली का उत्सव था, बड़े सुंदर-सुंदर शक्कर खिलौने बनाये जाते हैं।
तो उसमें कोई हाथी बना रखा था, कोई शेर बना रखा था, बच्चे सब उसी की खाने की बात कर रहे थे। अब चाहे हाथी खावें, चाहे शेर खावें खाना सबको शक्कर है। हाथी की सूंड़ तोड़कर खा लो, तो मुँह मीठा होना है पैर तोड़ के खा लो, तो मुँह मीठा होना है। है तो वह शक्कर, पर शक्कर ही अलग-अलग नाम रूप से देखने में आ रही है। उसी प्रकार जो तत्त्ववेत्ता महापुरुष होते हैं, वह तो सारे जगत् में उसी शक्कर रूपी परमात्मा का दर्शन करते हैं। सब उसी के विविध नाम-रूप हैं।
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भगवान् कहते हैं, सुनो ब्रह्माजी ! ये तो रहा मेरा स्वरूप। अब मेरी माया, जो तुम्हारा कार्य सिद्ध करेगी, उसके बारे में भी जान लो।
ऋतेऽर्थ यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः ॥
(भा. 2/9/33)
जो नहीं है, वही माया है। माया का काम क्या है? जो नहीं है, उसे दिखा देती है और जो है, उसे छुपा दता है। जैसे परमात्मा सत्य है, शाश्वत है, नित्य है, अविनाशी है परन्त हमें दिखाई नहीं पड रहे. उनका पता ठिकाना ही नजर नहीं आता कि कहाँ हैं। हमारे शास्त्र बार-बार कह रहे हैं-
'ईशावास्यमिदं सर्वम्', 'वासुदवः सर्वमिति',
सर्वऽखिल्विदं ब्रह्म', 'सर्व विष्णुमयं जगत्',
'हरि ब्यापक सर्वत्र समाना' -
परन्तु हम फिर भी नजर नहीं आ रहा।
अलक्ष्यं सर्वभूतानां अन्तर्बहिर अवस्थितम्।
सब जगह रहने पर भी दिखाई नहीं पड़ रहा, ये ही माया का चमत्कार है। और जो जगत् अशाश्वत है, अनित्य है, विनाशी है, वह हमें आखों से प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है और उसी में हम चिपके बैठे हैं। स्वप्न के लोगो की तरह उन्हीं से जीवन की बागडोर बाँधे बैठे हैं।जो है वो दीखता नहीं और जो दिखाई दे रहा होता है असल में वह होता नहीं यही है मायापति भगवान की माया।
अरे भाई! विशुद्ध सोने के बहुत बढ़िया गहने नहीं बनते। बढ़िया गहने बनाने के लिये अलंकार बनाने के लिये थोड़ा टांका तो लगाना पड़ता है, कुछ-न-कुछ मिलावट तो करनी ही पड़ती है तभी गहना बढ़िया बनता है। उसी प्रकार यदि माया की मिलावट जीव में न हो, तो सभी जीव शुद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जायें। माया के द्वारा ही तो जीव को अज्ञान से ग्रसित करके ही ये संसार चल रहा है।
माया न होवे तो संसार ही ठप्प हो जावे। शुद्ध सोना बढ़िया तो होता है, पर उसके गहने नहीं बनते। बिस्किट बना लिया, बढ़िया है, शुद्ध है कोई मिलावट नहीं, अब रखे रहो। पर गहने बनाने के लिये तो टांका मारना पड़ेगा। उसी प्रकार बिना दोष उत्पन्न हुए जीव का जन्म-मरण सम्भव नहीं।
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इस प्रकार से बड़ा सुन्दर उपदेश दिया, इस भागवत में दस लक्षणों का निरूपण किया। सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर-कथा, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय। प्रथम और द्वितीयस्कन्ध में तो श्रोता और वक्ता के अधिकार का निरूपण किया गया हैं।
तृतीयस्कन्ध में सर्ग का वर्णन किया गया है। चतुर्थस्कन्ध में विसर्ग का, पंचमस्कन्ध में स्थान का, षष्ठस्कन्ध में पोषण का वर्णन है।
शंका - भगवान् का अनुग्रह कैसे-कैसे जीवों पर हो जाता है? जीव कर्म करे, कर्म का फल भोगता रहे तो फिर भगवान् की क्या आवश्यकता रही? फिर भगवान् की क्या जरुरत? समाधान - नहीं-नहीं! परमात्मा का शासन राष्ट्रपति शासन है।
यदि आपने किसी की हत्या कर दी, तो कानून तो आपको फांसी की सजा सुना देगा। पर राष्ट्रपति का ये स्वतन्त्र अधिकार है कि वह आपको फांसी से बचा सकता है, ये उसकी कृपा पर निर्भर है। ऐसे-ही परमात्मा की कृपा स्वतन्त्र होती है, उस पर कोई नियम लागू नहीं होता।
वह घुणाक्षरन्याय से कब हो जाये? किस पर हो जाये? कैसे हो जाये? उस पर कोई नियम कानून नहीं चलता। पूजा करने वाले को भगवान् जल्दी मिलते हैं, कोई जरुरी नहीं।
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