bhagwat katha in hindi ,-22
bhagwat katha in hindi ,भाग-22

जिह्वां क्वचित् संदशति स्वदद्भिस्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत् ।
(भा.मा. 11/23/51)
यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित् क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे ॥
(भा.मा. 11/23/52)
किस पर क्रोध करें, ये ज्ञान हो जाने से संत अजातशत्रु हो जाता है। वह किसी से वैर नहीं करता। क्योंकि,
सीय राममय सब जग जानि ।
करहु प्रणाम जोरि जुग पानी ॥
(रामचरितमानस 1/8/1)
कपिल भगवान् कहते हैं, माँ ! ऐसे संतों के संग में रहने से
सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हत्कर्णरसायनाः कथाः ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
(भा. 3/25/25)
उन संतों के बीच में बैठोगे, तो चौबीसों घंटे वह मेरी महिमा सुनायेंगे मेरी मधुर-मधुर कथा सुनायेंगे। नाम की महिमा, रूप की महिमा, स्वभाव की महिमा, प्रभाव की महिमा, भगवान् की कृपालुता की महिमा, भगवान् के करुणामय स्वभाव की महिमा, इतनी सुनायेंगे कि सुन-सुनकर आप अपने आप ही दीवाने हो जाओगे।श्रद्धा रतिः भक्तिः' - अपने आप भगवान् की महिमा सुनकर श्रद्धा उत्पन्न होगी, फिर धीरे-धीरे प्रेम जागत होगा
और वही प्रेम बढ़ते-बढ़ते विशुद्ध भक्ति के रुप में स्थित हो जायेगा। इसलिये सबसे बढ़िया साधन है - संतों का * संग।
अब आगे भगवान् कपिल ने सृष्टि-प्रक्रिया भी बहुत विस्तार से बतलाई। कपिल भगवान् अष्टांग-योग
का वर्णन करते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । साधक को चाहिये। कि सबसे पहले पावनभूमि का चयन करे क्योंकि भूमि का भी प्रभाव मन पर पड़ता है। इसलिये,
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासनआसनम्।
पावनभूमि पर बैठकर आसन को जीतकर, विशुद्धभाव से प्राणायम के द्वारा मन को शुद्ध करें और फिर भगवान् का ध्यान चरणों से प्रारम्भ करें। 'स्वनासाग्रावलोकनः' नासिका के अग्रभाग का अवलोकन करते
हुए भगवान् का ध्यान करें।
सश्चिचन्तयेद्भगवतश्चरणारविन्दं वज्राङ्कशध्वजसरोरुहलाञ्छनाढ्यम् ।
उत्तुङ्गरक्तविलसन्नखचक्रवालज्योत्स्नाभिराहतमहद्धृदयान्धकारम् ॥
(भा. 3/28/21)
भगवान के श्रीचरण कैसे हैं? ऊपर को उभरे हुए बाहर को लाल-लाल तलुवे हैं, उन तलुवों में बढ़िया-बढ़िया चिह्न बने हुए हैं। वज्र, अंकुश, ध्वजा, जौ, आदि सब चिन्ह' हैं, उनका भगवान् के पदों में ध्यान करना चाहिये।तलुवे की लालिमा में जब खूब चित्त चिपक जावे, तब फिर भगवान् के चरणों के नखों का ध्यान करता चाहिये। भगवान् के पद नख पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह चमक रहे हैं। उसमें से प्रकाश निकल रहा है, ज्योत्स्ना निकल रही है।
उन भगवान् के पद-नख-चंद्रिका की ज्योत्सना से साधक के हृदय का सारा अंधकार नष्ट हो जाता है। भगवान् के पद-नख को चंद्रिका क्यों कहा? क्योंकि चन्द्र में प्रकाश भी होता है और शीतलता भी होती है।
भक्त भगवान् के पद-नख-चंद्रिका की ज्योत्स्ना का ध्यान करेगा, तो परम-शीतलत भी मिलेगी और अज्ञान का अंधकार भी मिटेगा। पाद-तल के ऊपर का भाग जो है, वह श्याम-स्वरूप है।
अब देखिये! भगवान् के चरणकमलों में तीन रंग हो गये -
1. लाल-लाल हैं तलवे, श्वेत हैं नख और 3. ऊपर का भाग है श्याम। साक्षात् तीर्थराज प्रयाग प्रकट हो रहा है प्रभु के चरणों में। तीर्थराज प्रयाग में त्रिवेण तीन धारा – गंगा, यमुना और सरस्वती। गंगा की धवल-धारा, यमुना की श्याम-आभा और सरस्वती क रक्त-कान्ति है परन्तु वह लुप्त है, दृष्टिगोचर नहीं होती।
ऐसे ही हमारे प्रभु खड़े हुए हैं, इसलिये सरस्वती की ज लाल-कान्ति तलवों की है, वह ढंकी हुई है, छुपी हुई है। ये तो भगवान् के पाद-सेवक जो भक्त हैं, वह ही चरणो की सेवा करते-करते उस लालिमा की कान्ति का आनन्द ले लेते हैं, सबको थोड़े ही मिलती है? तो प्रभु के खड़े होने से पाद-तल की रक्त-आभा तो छुपी हुई है।
पर नखों की श्वेत-कान्ति और ऊपर की श्याम-आभा चमक रही है, जैसे-तीर्थराज प्रयाग में गंगा और यमुना की धारा तो दृष्टिगोचर होती है, पर भगवती सरस्वती लुप्त है। इसलिये इसका नाम है – त्रिवेणी। मातायें जो केश गूंथती हैं, उसे संस्कृत में वेणी कहते हैं।
पर आपने देखा होगा कि मातायें जब केश सँवारती हैं, तो अपने केशों के तीन भाग करती हैं। और तीन भाग करके गंथना जब प्रारम्भ करती हैं, तो आपको दो ही धारायें नजर आवेगी तीसरी का पता नहीं चलेगा।
केश तीन भागों में बांटे जाते हैं, पर गूंथते समय दो ही दिखते हैं तीसरा उसी में लुप्त है। इसलिये यह भी त्रिवेणी है। धारा तीन है, पर दिखेंगी दो तोसरी उसी में लुप्त है।
भगवान् के ऐसे सुन्दर चरणकमलों में चित्त लगाने के बाद फिर एक-एक करके ऊपर के अंगों का ध्यान करें। घुटनों का, जंघाओं का, कटि का, नाभि का, हृदय का, हृदय में श्रीवत्स के चिन्ह का, कण्ठ में कौस्तुभमणि का। चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा व पद्म का ध्यान करने के पश्चात् तब भगवान् के मुखकमल का ध्यान करें।
भगवान् के प्रत्येक अंग प्रायः कमल से उपमा दिये जाते हैं। शंका - भगवान् के प्रत्येक अंग को प्रायः कमल की उपमा क्यों दी जाती हैं? समाधान - इसलिए दी जाती है क्योंकि इस सृष्टि में सब पदार्थ ब्रह्माजी के बनाये हुए है, पर कमल ब्रह्माजी ने नहीं बनाया। ब्रह्माजी स्वयं कमल से ही पैदा हुए हैं। तो भगवान् के सभी अंगों की उपमा प्रायः कमल से ही की जाती है।
सभी अंगों को कमल की उपमा दी गई है। भगवान् के मुखकमल की कान्ति का ध्यान करते समय विचार करें कि कितनी सुन्दर भगवान् के ललाट की आभा है।
पुष्पधनु के समान सुन्दर भृकुटी है, मत्स्य के समान विशाल नेत्र हैं, शुकपिण्ड के समान सुन्दर नासिका है, बिम्बाफल के समान लाल-लाल अधर हैं, मन्द-मन्द मुस्कुराने से अन्दर की दन्तावली भी दमक रही है।
लाल-लाल अधरों का प्रतिबिम्ब उस श्वेत-दन्तावली के ऊपर पड़ रहा है, इसलिये अनार के रस भरे दानों की तरह वह दन्तावली दमक रही है। माधव नैन मटकाकर और मुस्करा हमारे चित्त को चुरा रहे हैं, संकेत देकर हमें बुला रहे हैं - ऐसी दिव्यभावना ध्यान में करना चाहिये।
कपिल भगवान् कहते हैं, माँ ! एक बार ध्यान में जिसने भगवान् की मुस्कान का आनन्द ले लिया, तो उसके जीवन में शोकाश्रु सदा-सर्वदा के लिये सूख जाते हैं।
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्रशोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य भूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य॥
(भा. 3/28/32)
आपके लोटे में खारा पानी भरा है। अब गंगाजल भरना चाहते हो तो पहले खारा पानी फेंकना पड़ेगा, तब उसमें गंगाजल भरेगा । उसी प्रकार हमारे भीतर अभी शोकसागर भरा है। पर जब जीव भगवान् की ओर अभिभुख होता है, तो पहले तो भगवान् के विरह में खूब अश्रुपात करता है।रोते-रोते जब खारा पानी परा निकल जाता है, पात्र खाली हो जाता है और जहाँ भगवान् की छटा का दर्शन किया, तो ऐसा आनन्द उमड़ता है, ऐसा रस भरता है कि ज्यादा पानी भर दो, तब भी तो छलकता है?
तो भगवान् के प्रेम का सागर जब भक्त के हृदय में बहुत ज्यादा भर जाता है और वह उसे सँभाल नहीं पाता, तब नेत्रों के प्यालों से वह भी छलकने लगता है।
भगवान् के विरह में यदि आँखों से अश्रुपात होता है, तो वह शोकाश्रु है। पर भगवान् की दिव्यानन्द की अनुभूति के बाद भी भक्तों को अश्रुपात होता है, वह प्रेमाश्रु है। परमशीतल होता है, परमानन्द प्रदान करने वाला होता है।
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