श्रीमद भगवत कथा हिंदी -16
bhagwat-भागवत
[ भाग-16 ,part-16 ]
कालेन तावद्यमुनामुपेत्य तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श।
भगवान् के परमप्रिय महाभागवत सखा श्रीउद्धवजी से भेंट हुई, अरे ! भैया उद्धव बताओ कैसे हो? अनेकानेक प्रश्न कर दिये, भैया ! उस महाभारत का क्या हुआ? ये तो बताओ ! मैं तो छोड़कर ही चला गया था।और द्वारिका में कौन-कौन हैं? कैसे हैं? हमारे प्यारे प्रभु तो आनन्द के साथ हैं न? जब सभी की कुशलता के अनेक प्रश्न कर डाले, तो उद्धवजी के नेत्र बंद हो गये। विदुरजी बोले, क्या हुआ भैया? भगवान् के प्रेम में उद्धवजी की तो समाधि लगी जा रही है। जैसे-तैसे विदुरजी ने उन्हें सावधान किया, तब उद्धवजी होश में आये।
_शनकै गवल्लोकान्नलोकपुनरागतः।
भगवान् के ध्यान में उनके धाम को चले गये थे। लौटकर उद्धवजी पुनः अपने होश में आये और तब उद्धवजी ने पूरा समाचार विस्तार से विदुरजी को सुनाया, महाराज विदुर! आपको कुछ नहीं मालूम? अरे! महाभारत कब का सम्पन्न हो गया? पाण्डव विजयी हो गये और गोविन्द भी अपनी सम्पूर्ण लीला का संवरण करके परमधाम को प्रस्थान कर गये। धिक्कार है!जबतक प्रभु धराधाम पर रहे, कोई उनके स्वरूप को समझ नहीं पाया।
और सबसे अधिक धिक्कार तो हम यदुवंशियों के लिये है, जिनके साथ इतने निकट रहे। परन्तु जैसे-मछलियों के बीच में चन्द्रमा रहे, तो चंद्रमा को भी ये मछलियां चमकीली मछली मानती रही। चन्द्रमा आज जब आकाश में चमका, तब अपने चंद्र से मिलने के लिये मछलियां उछलती हैं कि ये तो बड़ा महत्वपूर्ण है।
हमारे बीच रहा हम उसकी महत्ता को ही नहीं समझ पायीं। समुद्र भी उमड़ता है, जब पूर्ण चन्द्रमा को देखता है, तो सागर में हिलोरें उठती हैं। आज उसका महत्व समझ में आ रहा है।
उद्धवजी कहते हैं, विदुरजी ! जाते समय भगवान् ने हमें दिव्य ज्ञान प्रदान किया था और हमसे कहा था कि जब मैं हस्तिनापुर आया था, तो विदुर-विदुरानी ने कितना प्रीतिपूर्वक मेरा सम्मान-स्वागत किया था। पर आज तक मैं विदुरजी को कुछ नहीं दे पाया। इसलिये मेरा ये तत्त्वज्ञान जो तुम्हारे पास है, जब भी तुम्हारी विदुरजी से भेंट हो, तो ये ज्ञान उन्हें अवश्य प्रदान कर देना।
इतना सुनते ही विदुरजी के नेत्र भर आये। गद्गद् होकर बोले कि, वाह! प्रभु हमारे घर में पवाने के लिये था ही क्या? सूखा बथुआ का साग खिला दिया, विदुरानी ने भावुकता में छिलके ही खिला दिये और भगवान् उसके ही ऋणियां बन गये? परन्तु विदुरजी का कण्ठ गद्गद् है। सारा जगत् जिसे याद करता है, वह जाते-जाते मुझ विदुर को याद करके गये।
विदुरजी उद्धवजी से बोले, जल्दी बताओ! मुझे मैत्रेय कहाँ मिलेंगे?
मैं जानना चाहता हूँ, वह कौन-सा ज्ञान प्रभु ने दिया है? मैं मैत्रेयजी से श्रवण करूँगा। श्रीउद्धवजी बोले, तुम्हें हरिद्वार में गंगा के किनारे कहीं-न-कहीं मैत्रेयजी से भेंट हो जायेगी। बस! इतना कहकर उद्धवजी तो बद्रीविशाल की ओर चले और विदुरजी सीधे हरिद्वार पहुँचे।
हरिद्वार में गंगातट पर भ्रमण करते-करते मैत्रेय मुनि से भेंट हो गई।
जो मैत्रेय मुनि ने वुिदरजी को देखा, उठकर खड़े हो गये और कहा, आओ विदुरजी महाराज ! मैं तो कब से तुम्हारी राह देख रहा हूँ, क्योकि बड़ा भारी दायित्व प्रभु मेरे कंधों पर डाल गये हैं।
विदुरजी तुरन्त आये, मैत्रेय मुनि से भेंट की और कहा कि भगवन् ! मैं अब आप के सामने अपने कुछ प्रश्न रखना चाहता हूँ, मेरी जिज्ञासा का समाधान करें।
सुखाय कर्माणि करोति लोको न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत भूयस्तत एव दुःखं यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥
(भा.मा. 2/5/3) विदुरजी महाराज पूछते हैं, महाराज ! कृपा करके ये बताइये कि संसार का प्रत्येक प्राणी सुखी होना चाहता है। ऐसा कोई नहीं जिसे सुख की लालसा न हो। कोई भोजन चाहता है, पर जरुरी नहीं कि सबको भोजन की इच्छा हो। कोई भोजन के नाम से भागता है। हर वस्तु कितनी भी प्रिय हो, कितनी भी अच्छी हो पर किसी को अच्छी लगेगी, किसी को नहीं।
कोई चाहेगा, कोई नहीं। पर ऐसा विश्व में कोई नहीं जो ये कहे कि मुझे सुख की इच्छा नहीं है। मानवमात्र सुखी होना चाहता है, सुखी होने के लिये दिन-रात प्रयत्नशील भी है, मेहनत भी कर रहा है। हम जितनी भी भागम-भाग कर रहे हैं, एक ही उद्देश्य है कि हम सुखी हो जायें।
पर हम देखते हैं कि जो सुखी होने का जितना प्रयत्न करता है, वह उतना ही दु:ख के दलदल में फंसता चला जाता है, सुखी कोई नहीं हो पा रहा। प्रश्न है कि ये जीव सुखी कैसे हो? __ कोई दलदल में गिर जाये तो, ज्यों-ज्यों निकलने के लिये हाथ पैर फटकारेगा, त्यों-त्यों भीतर घुसता चला जायेगा।
यही हालत हम लोगों की है। ये दु:ख के दलदल से सब सुखी होने के लिये निकलना चाहते हैं। परन्तु ज्यों-ज्यों निकलना चाहते हैं, त्यों-त्यों घुसते जा रहे हैं। पहले केवल झोपड़ी थी, तब चाहते थे कि एक कोठी हो जाये। कोठी बनी, तो चाहने लगे कि गाड़ी हो जाये। गाड़ी हो गई, तो चाहते हैं कि अपने नाम की एक बढ़िया फैक्ट्री लग जाये ... ऐसे करते-करते हमारा राजाओं-जैसा वैभव हो गया।
पर जब किसी ने पूछा कि कितने सुखी हो पाये? तो जहाँ-का-तहाँ, महाराज! पहले तो कम-से-कम सवेरे-सवेरे भोजन में दस रोटी खाते थे। खूब खुराक थी, मस्ती से पड़े रहते थे।
अब तो नींद की गोली खाते हैं, तब भी रात में नींद नहीं आती है।
और खाने के नाम पर डॉक्टरों ने कह दिया कि दाल का पानी पियो। भोजन भी गया, नींद भी गई। जो सुख था, वह और चला गया। सुखी कहाँ हो पाये? दिन-रात चिन्ताओं के मारे नींद हराम हो गई।
श्रीमैत्रेय मुनि कहते हैं, विदुरजी महाराज! आप साक्षात् धर्म के अवतार हैं। बहुत बढ़िया प्रश्न किया है, विदुरजी! जगत् में सुख है ही नहीं। जहाँ हम सुख ढूँढ़ रहे हैं, वहाँ है ही नहीं। सुख तो हमारे भीतर है। जैसे एक प्यासा व्यक्ति पानी की खोज में निकला। लोग बताते गये, आगे चले जाओ, सरोवर है।
चलते-चलते सरोवर के तट भी पहुँच गया। सरोवर में पानी भी बहुत था, पर विडम्बना ये कि उसमें काई जम गई। कभी-कभी आपने स्थिर जल में काई जमते देखा होगा। इतनी काई की परत लग गई कि पानी दिखाई ही नहीं पड़ता, ढंक गया पूरा जल।
अब प्यासा चारों तरफ देखता है, पानी की तो कहीं बूंद भी नहीं है! दूर-दूर तक दृष्टि घमाई तो सरोवर के चारों तरफ रेगिस्तान था। सरोवर में पानी है, पर काई से ढंका है। रेगिस्तान पर दष्टि डाली तो रेतीली भूमि पर उसे जल की तरंगे नजर आयीं। इसी को कहते हैं
'मृगमरिचिका' अथवा 'मृगतृष्णा'।
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