bhagwat katha in hindi -21

sampurna bhagwat katha in hindi ,भाग-21
एक दिन देवहूति माँ अपने पुत्र के पास आई और बोली, बेटा!
निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिन्द्रियतर्षणात् ।
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ॥
(भा. 3/25/7)  
माता देवहूति पूछती हैं, हे प्रभो! संसार में जितना सुख मैंने भोगा, इतने सुख की कोई स्त्री कल्पना भी नहीं कर सकती भोगना तो दूर रहा। हर प्रकार की अनुकूलता, हर प्रकार का वैभव-मायके में मैं राजकुमारी बनकर ठाठ से रही। ससुराल में भी कर्दम-जैसे परमयोगी संत पति मिले, कामद विमान में दिव्य भोगों का सेवन कराया।

परन्तु इतना सब पाने के बाद भी मेरी आत्मा अतृप्त है, मेरा मन अभी भी असंतुष्ट है। बेटा! आज मैं तुझे केवल अपना बेटा नहीं समझ रही। सुना है तू तो साक्षात् भगवान् है, ब्रह्मज्ञान सम्पन्न है। मैं चाहती हूँ कि अपने ज्ञान का खड्ग उठाकर मेरे अज्ञान के वृक्ष को जड़ सहित नष्ट कर दो।

मैं तुम्हारी शरण में हूँ।

(भा. 3/25/11) 
कपिल भगवान् ने आठ अध्यायों में बड़ा ही अद्भुत सांख्ययोग का उपदेश दिया। इन आठ अध्यायों को कपिलाष्टाध्यायी कहते हैं।

कपिल भगवान् कहते हैं, माँ ! संसार में चाहे जितने विषय जीव को प्राप्त हो जाये, कितना भी विषयों का भोग वह कर ले पर वास्तविक तृप्ति इसे नहीं मिल सकती। इन्द्रियों का तर्पण है विषय। आत्मा तो अतृप्त ही रह जाती है। और विषय तो स्वयं अपूर्ण है, उन्हें पाकर हम पूर्ण कैसे हो जायेंगे? जीवन में परिपूर्णता तो तभी आयेगी, जब परिपूर्ण से जुड़ोगे और परिपूर्ण तो केवल प्रभु है।


sampurna bhagwat katha in hindi ,भाग-21
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

 उस परिपूर्ण-प्रभु के पादपद्मों को पाये बिना जीवन में परिपूर्णता का आनन्द आ ही नहीं सकता। अपने मन को जगत से हटाकर जगदीश्वर में लगाओ।

गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये 

ये मन ही बन्धन और मुक्ति का कारण है। माताजी! चाबी एक ही होती है और जिस चाबी से हमने ताल बन्द किया है, वही चाबी ताले को खोलेगी भी। मोड़ने का अन्तर है। इधर मोड़ दिया तो ताला बंद और उधर मोड़ दिया तो ताला खुल जायेगा। मन को हमने संसार की तरफ मोड़ दिया तो ये संसार में हमें बाँधने लगा।

 अब इसी मन को माधव के चरणों की तरफ मोड़ दो, तो यही मन तुम्हारी मुक्ति का हेतु बन जायेगा। देवहूतिजी प्रश्न करती हैं, तो बेटा ! मन को कैसे मोड़ा जाये? 

कपिलजी कहते हैं, माँ ! उसका सबसे सरल साधन है - संतों का संग। जिनका मन उसमें लगा हुआ है, ऐसे रसिक संतो का तुम संग करो। वह भगवान् के नाम-रूप-लीलाधाम की महिमा गा-गाकर, सुना-सुनाकर तुम्हारे मन को भी उधर ही मोड़ देंगे।

बीड़ी पीने वाले के संग में रहो, वह भी तुम्हें बीड़ी पीना सिखा ही देगा। तम्बाकू वाले के संग में ज्यादा रहो,तो किसी-न-किसी दिन आपको भी चस्का लगा ही देगा। अरे! जब ये दुर्व्यसनी लोग अपने-अपने संग वालों को उसी व्यसन का रसिक बना देते हैं तो जो भगवद्-रसिक हैं, उस दिव्यातिदिव्य रस में सर्वदा निमग्न रहने वाले रसिक हैं, उनका संग करोगे तो क्या वह तुम्हें उधर नहीं लगायेंगे? देवहूतिजी प्रश्न करती हैं, अच्छा बेटा! तो कैसे पता चले कि ये भगवद्-रसिक हैं ? साधू की पहचान क्या है? किसका संग करें? कपिल भगवान् कहते हैं, साधुओं के पाँच लक्षण हैं,

तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ॥ 
(भा. 3/25/21) 
ये साधुओं के आभूषण हैं, 'तितिक्षवः' - बड़े सहनशील होते हैं। द्वन्द्वों को सहन करना ही तितिक्षा है। माला पहना दो, तो बहुत ज्यादा गद्गद् नहीं। और धक्का मारकर भगा दो, तो मुँह लटकाकर बैठते नहीं उनके लिये दोनों बराबर हैं। क्योंकि वह आत्मस्थ हैं, अपने में स्थित है इसलिये स्वस्थ हैं।

हम लोग अस्वस्थ हैं क्योंकि बाहर स्थित हैं, स्व में स्थित नहीं हैं। संत सारे द्वंदों को समान रूप से स्वीकार कर लेता है। संत यदि कदाचित् जीवन में दुखी होवे, तो अपने कारणों से नहीं अपितु दूसरों को दुखी देखकर दुखी होता है।

क्योंकि उसमे करुणा बहुत होती है - 'कारुणिकाः'। तीसरी बात, 'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' - जितने भी देहधारी है, सभी का अपना सुहृद मानता है। उसे संसार में कोई दूसरा नजर ही नहीं आता। इसलिये 'अजातशत्रुः' वह अजात शत्रु होता है।

जो सबमें अपने प्यारे का दर्शन करेगा, तो अब वैर करे तो किससे करे? ये सारा शरीर हमारा है, इस शरीर में अनेक अंग हैं - आँख है, नाक है, दाँत है, जीभ है, अधर है, ओष्ठ हैं, ... आदि-आदि। और इन सबको मिलाकर हमारा शरीर एक है।

ये ज्ञान हमें सहज है कि सारे अंग हमारे हैं। अब इसी शरीर में कभी-कभी भोजन करते समय हमारे दाँतों से जीभ कट जाती है, तो क्या हम इन्हें अलग-अलग मानते हैं? यदि अलग-अलग मानते तो दाँतों पर क्रोध जरुर आता, क्यों रे दुष्टो ! 

तुम इतने क्रूर हो? बत्तीस-बत्तीस मिलकर चारों तरफ से उस कोमल-सी जिह्वा को घेर के सताते रहते हो? इतना कष्ट उस बेचारी जिह्वा को दिया? अब तुम्हें हम देखते हैं। हथौड़ा लेकर दो-चार दाँत आज तक किसी ने टपकाये?

उन्हें दण्ड क्यों नहीं दिया? अरे भाई! किसी निर्बल पर कोई अत्याचार करे और आप समर्थ हों, तो क्या उसे दण्ड नहीं दोगे? तो आप समर्थ हो दाँत तुम्हारे ही अधीन हैं। यदि उन्होंने जिह्वा को काट दिया, तो तुम दाँतों को दण्ड दो, तोड़ दो। क्यों नहीं तोड़े? क्योंकि सभी जानते हैं कि दाँत भी तो हमारे ही हैं। 

अब जिह्वा कट गई, उसका दर्द तो हो ही रहा है दाँत तोड़ देंगे तो दर्द और दुगुना हो जायेगा, क्योंकि दर्द तो हमें ही होगा - ये ज्ञान हमें ठीक से है, इसलिये हम दाँतों को दण्ड नहीं देते।

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