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भागवत पुराण हिंदी में bhagwat puran hindi men 18

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sampurna bhagwat katha in hindi भाग-18 ,part-18  मनु -शतरूपा से ही मानवी-सृष्टि का विस्तार हुआ। इसलिये मनुपुत्र होने के नाते ही हम लोग मानव कहलाते हैं। जो लोग हमें मनुवादी कहकर पुकारते हैं, इसका मतलब वह अपने को मनुपुत्र नहीं मानते। तो वह अपना स्वयं हिसाब लगा कि वह अपने को किसकी सन्तान मानते हैं। अरे! मानवमात्र मनु के पुत्र हैं। मनु-शतरूपा से पाँच सन्तानें हुई, उनमें दो बेटा और तीन बेटी हैं।  बेटियों के नाम है - आकूति, देवहूति और प्रसूति तथा बेटों के नाम हैं - प्रियव्रत और उत्तानपाद। पर एक दिन मनु महाराज ने ब्रह्माजी से प्रार्थना की। भगवन् ! सृष्टि का मैं विस्तार तो करना चाहता हूँ, पर कैसे करूँ? महाराज! हिरण्याक्ष राक्षस पृथ्वी का ही हरण करके ले गया। तब ब्रह्माजी ध्यान लगाया, ध्यान लगाते ही उन्हें बड़ी तेज छींक आई। छींकते ही उनकी नासिकारन्ध्र से भगवान् का वाराह रूप में प्राकट्य हो गया। देखते-देखते वाराह भगवान् का पर्वताकार देह हो। गया। देवताओं ने स्तवन किया, हिरण्याक्ष का वध करके भगवान् ने पृथ्वी का उद्धार किया। विदुरजी ने मैत्रेयजी से पूछ दियाकि भगवन ! कृपा करके...

sampurna bhagwat katha in hindi 17

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sampurna bhagwat katha in hindi [ भाग-17,part-17]   कभी -कभी सड़क पर गाड़ी से चलते गर्मियों में देखियेगा, सूर्य की रश्मियों के पडने से ऐसा लगता है कि जैसे जल सड़क पर पड़ा हो। पर पानी एक बूंद भी नहीं होता। और दूर से देखो, तो स्पष्ट जल ही नजा आयेगा। वही मृगतृष्णा कहलाती है। प्यासा सरोवर के तट पर खड़ा है। जहाँ पानी भरा है, वहाँ पानी दिख नहीं रहा। और जहाँ पानी दिख रहा है, वहाँ पानी की बूंद नहीं है। तो भ्रम में पड़ गया। पानी जहाँ दिख रहा था. वहाँ दौड़ पड़ा तो रेगिस्तान में भटकता-भटकता मर गया। पानी का तट छोड़कर रेगिस्तान में पानी पीने गया। यही हालत हम लोगों की है। भीतर हमारे प्रभु ने आनन्द का सागर भर रखा है, पर उस आनन्द के सागर में अज्ञानता की काई लगी हुई है इसलिए दिख नहीं रहा, समझ में नहीं आ रहा। और बाहर के विषयों में आनन्द का भ्रम है। सुख का भ्रम है। मानस 7/117/1,  जीव जो सहज ही सुखराशि था जिसके भीतर आनन्द-ही-आनन्द और सुख सब भरा हुआ था पर अज्ञा की परत के कारण दिखा नहीं। बाहर के विषयों में सुख का भ्रम हो गया, सो बाहर ढूँढने लगे। ये मिल जाये तो सुखी हो जाऊँ वह आ जा...

श्रीमद भगवत कथा हिंदी -16

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bhagwat-भागवत  [ भाग-16 ,part-16 ] कालेन तावद्यमुनामुपेत्य तत्रोद्धवं भागवतं ददर्श।  भगवान् के परमप्रिय महाभागवत सखा श्रीउद्धवजी से भेंट हुई, अरे ! भैया उद्धव बताओ कैसे हो? अनेकानेक प्रश्न कर दिये, भैया ! उस महाभारत का क्या हुआ? ये तो बताओ ! मैं तो छोड़कर ही चला गया था। और द्वारिका में कौन-कौन हैं? कैसे हैं? हमारे प्यारे प्रभु तो आनन्द के साथ हैं न? जब सभी की कुशलता के अनेक प्रश्न कर डाले, तो उद्धवजी के नेत्र बंद हो गये। विदुरजी बोले, क्या हुआ भैया? भगवान् के प्रेम में उद्धवजी की तो समाधि लगी जा रही है। जैसे-तैसे विदुरजी ने उन्हें सावधान किया, तब उद्धवजी होश में आये। _ शनकै गवल्लोकान्नलोकपुनरागतः।  भगवान् के ध्यान में उनके धाम को चले गये थे। लौटकर उद्धवजी पुनः अपने होश में आये और तब उद्धवजी ने पूरा समाचार विस्तार से विदुरजी को सुनाया, महाराज विदुर! आपको कुछ नहीं मालूम? अरे! महाभारत कब का सम्पन्न हो गया? पाण्डव विजयी हो गये और गोविन्द भी अपनी सम्पूर्ण लीला का संवरण करके परमधाम को प्रस्थान कर गये। धिक्कार है! जबतक प्रभु धराधाम पर रहे, कोई उनके स्वर...

भागवत पुराण -15

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॥ तृतीयः स्कन्धः॥ bhagwat-भागवत  [ भाग-15 ,part-15 ] (सर्ग) विदुर चरित्र : परीक्षितजी ने पूछा, महाराज! श्रीविदुरजी का चरित्र हमें सुनाइये। शुकदेवजी कहते हैं, यदा तु राजा स्वसुतानसाधून् पुष्णन्नधर्मेण विनष्टदृष्टिः । भ्रातुर्यविष्ठस्य सुतान् विबन्धून् प्रवेश्य लाक्षाभवने ददाह ॥  (भा. 3/1/6) जिस समय राजा धृतराष्ट्र बिल्कुल अंधे हो चुके थे, अंधे तो वह बचपन से ही थे, बाहर की आँखे तो पहले से ही फूटी हुई थीं। पर पुत्र के प्रेम में इतना मोह छा गया कि भीतर की आँखें भी बंद हो गईं, ज्ञान विराग नयन उर गारी  अर्थात् ज्ञान-वैराग्य के जो दूसरे नेत्र हैं, वह भी आज नष्ट हो गये। राजा धृतराष्ट्र अधर्म का पोषण कर रहे हैं, अधर्म का आश्रय ले रहे हैं इसलिये उनके विवेक के नेत्र भी नष्ट हो गये। श्रीविदुरजी महाराज ने समझाने का प्रयास किया। विदुरजी महाराज धर्मावतार हैं, श्रीयुधिष्ठिरजी महाराज भी धर्मावतार हैं।  कौरव पक्ष में विदुर के रूप में धर्म है, पाण्डव पक्ष में युधिष्ठिर के रूप में धर्म है – दोनों की ओर धर्म है। पर अन्तर क्या है? फिर पाण्डव विजयी क्यों ह...

bhagwat - भागवत -14

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bhagwat-भागवत  [ भाग-14 ,part-14  ] किशोरीजी सखियों के साथ पूजा करने पुष्प वाटिका ही गई थीं। पर ‘एक सखी सिय संगु बिहाई'  (रामचरितमानस 1/228/4)  वह पूजा-पाठ छोड़कर घूमने के लिये बगीचा में निकल पड़ी। तो जो घूमने निकली थी, उसी को परमात्मा सबसे पहले मिले। और उसी की कृपा से अन्य सखियों को मिले। तो अब यह कानून नहीं लगा सकते कि पूजा न करने से ही भगवान् मिलते हैं, ये कोई नियम नहीं हो गया। भगवान की कृपा कैसे हो जाये? घर में रहने वालों को न मिलें और घर में रहने वालों को पहले मिल जायें और वन में घूमते-घूमते वर्षों बीत गये नहीं मिले। विश्वामित्रजी ने घर त्यागा और वन में खूब भटके, तपस्यायें की दरो ब्रह्मा बनने की सामर्थ्य तक इनमें आ गया तपस्या करते-करते। और दशरथजी महाराज घर में ही रहे और रामजी घर में ही आ गये। तब विश्वामित्र बाबा ने जो घर त्याग रखा था, उसी घर में वापिस आकर विश्वामित्रजी को रामजी का दर्शन मिला। तो घर में मिलेंगे कि वन में मिलेंगे, पूजा करने से मिलेंगे कि बिना पूजा किये ही मिल जायेंगे कृपा के ऊपर कोई नियम नहीं है। कृपा तो कब हो जाये? किस पर हो जाये? ...

bhagwat katha in hindi -13

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bhagwat katha in hindi  [ भाग-13,part-13 ] भाई! कुंभकार के पास मिट्टी होगी , तभी तो वह घड़ा, सकोरा, आदि बनायेगा? ज्वैलर्स के पास जब सोना होगा, तभी तो कड़ा, कुण्डल, आदि आभूषण बनायेगा। अकेला तो वह कुछ नहीं बना सकता? पर भगवान् तो सर्वथा अकेले थे इसलिये बने भी वही और बनाये भी वही। जगत् में कई कार्य ऐसे भी देखे जाते हैं, जिनका निमित्तकारण और उपादानकारण एक ही होता है। वैसे तो अलग-अलग होते हैं। कुम्हार ने मिट्टी से घड़ा बनाया, तो घड़े का उपादान-कारण क्या हुआ? वह मिट्टी जिससे घड़ा बनाया गया। पर मिट्टी अपने आप तो घड़ा नहीं बन गई? किसने बनाया? कुंभकार ने। तो कुंभकार हो गया निमित्त-कारण। बनाने वाला निमित्त-का और बनने वाला उपादान-कारण, तब कार्य सिद्ध होता है। ज्वेलर है निमित्त-कारण, सोना है उपादान-कारण तब बनकर तैयार हुआ - आभूषण। निमित्तकारण और उपादानकारण एक ही हो जिसका, ऐसा कोई प्रमाण? मोर का पंख या मकडी का जाला। मकड़ी का जो जाला है, उसका निमित्त कारण भी मकड़ी है और उपादान-कारण भी मकडी है। मकड़ी कोई बाजार से धागा खरीदकर तो लाती नहीं है जाला बनाने के लिये? वह जाल भी तो अपने द्वारा ...

bhagwat katha in hindi -12

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bhagwat katha in hindi  [ भाग-12,part-12 ] हमारे संत श्रीदरियाबजी महाराज कहते हैं - राम नाम नहि हृदय धरा जैसा पसुआ वैसा नरा।  पशुआ आवै पशुआ जावै, पशुआ रहे पशुआ खाय ।  नर पशुआ उद्यम करि खाय, पशुआ तो जंगल चरि आये। राम नाम जाना नहि माई, जनम गया पशुआ की नाई।  राम नाम से नाहि प्रीतिः यही सबै पशुअन की रीति ॥ जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरुगायगाथाः ॥  बड़ा सुन्दर वर्णन किया। अन्त में परीक्षित ने पूछ दिया, गुरुदेव! कृपा करके ये बताइये कि भगवान इस विचित्र संसार की रचना कैसे करते हैं? तब शुकदेवजी को ध्यान आया कि हमने कथा तो प्रारम्भ कर दी, पर मंगलाचरण तो अभी किया ही नहीं। तो अब शुकदेवजी प्रभु का ध्यान करके मंगलाचरण कर रहे हैं। अब बताओ! इतनी कथा कहने के बाद अब मंगलाचरण हो रहा है। परमहंस ठहरे ! दूसरा कारण एक और है कि पहले प्रश्न किया था परीक्षित ने कि मानव को क्या करना चाहिए? मरणधर्मा प्राणी का कर्त्तव्य क्या है? तो बताने लगे। परन्तु अब प्रश्न कर रहे हैं कि भगवान् जगत् की रचना कैसे करते हैं? तो भगवान् के स्वरूप का वैभव का वर्णन उनकी कृपा के ...

stories of bhagwat puran,moral stories from bhagavatam

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stories of bhagwat puran moral stories from bhagavatam [ भाग-11,part-11 ] ॥ द्वितीय स्कन्धः॥ देखो! एक स्थूल ध्यान है, एक सूक्ष्म ध्यान है। ये विश्व में जहाँ तक दृष्टि जा रही है और जो भी दिखाई पड रहा है, ये भी परमात्मा का एक स्वरूप है।' चौदह भुवनात्मक इस ब्रह्माण्ड में मृत्युलोक भगवान् की कमर है। इस मृत्युलोक के नीचे भी सात लोक हैं और ऊपर भी सात लोक है। नीचे के सात लोक - अतल, वितल. सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल। भगवान् के चरणों का जो तलुआ है, ये पाताललोक है। ऊपर भी सात हैं - भू, भुवः, स्वः, मह, जन, तप और सत्य। भगवान् का शीर्षस्थान सत्यलोक है। इस प्रकार चौदह भुवन ही भगवान् का विराट-वपु है। ये सारा ब्रह्माण्ड परमात्मा का स्वरूप है। जो सौंदर्य तुम्हारे चित्त को अपनी ओर खींचे, जिस सुंदरता पर मन मुग्ध हो जावे उसी में माधव की मुस्कान का दर्शन करना चाहिये। खिला हुआ सुमन चित्त को खींच रहा है, तो कि भगवान् मुस्कुराकर हमारे चित्त को ही चुरा रहे हैं - ऐसी भावना करना चाहिये। आकाश में रंग-बिरंगे पक्षी उड़ रहे हैं, यही भगवान् की चित्रकला है, कारीगरी है। चा जितना बढ़िया-बढ़िया च...

bhagwat katha hindi me story,भागवत कथा हिंदी में स्टोरी -10

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bhagwat katha hindi me story भागवत कथा हिंदी में  स्टोरी  [ भाग-10,part-10 ] ॥ द्वितीय स्कन्धः॥ (साधन) शुकदेवजी परीक्षित के इन प्रश्नों पर विमुग्ध हो गये। गद्गद् होकर बोले-- वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितो नृप ।  आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥ (भा. 2/1/1)  देखिये! डकार उसी की आयेगी, जो आपके भीतर भरी होगी। मली खाकर आयें हैं, तो मूली की डकार अपने आप बता देती है कि मुली खाकर बैठे हैं। शुकदेवजी का जो प्रथम अक्षर मुख से निकला, वह भी ब्रह्म का ही बीज निकला। व-कार जो है, वह ब्रह्म का बीज है। और शुकदेवजी के मुख से पहला व-कार ही निकला, वरीयानेष ते प्रश्नः' व शब्द पहले निकला, क्योंकि ब्रह्म का बीज व है और ब्रह्मानन्द शुकदेवजी के भीतर भरा है। शुकदेव बाबा कहते हैं, परीक्षित ! ये प्रश्न तुमने अपने लिये नहीं किया है। यदि परीक्षित ये पूछते कि महाराज ! मैं सातवें दिन मरने वाला हूँ, कुछ बचने का उपाय बतलाओ तो ये व्यक्तिगत प्रश्न होता। परीक्षित का प्रश्न ये है कि मरने वाले को क्या करना चाहिये? तो मरने वाले कोई परीक्षित अकेले थोड़े-ही हैं? इसका...

bhagwat katha hindi story,भागवत कथा हिंदी स्टोरी

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bhagwat katha hindi story भागवत कथा हिंदी  स्टोरी  [ भाग-9 ,part-9 ] ( प्रथम स्कंध ) कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वजं विससर्ज ह।  कौशिकी नदी का जल अपने हाथ में लेकर, महाराज परीक्षित को भयंकर शाप दे दिया - इति लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि । दङ्क्षयति स्म कुलांगारं चोदितो मे ततदुहम् ॥  भा. 1/18/370  ऐ कुलांगार! तुम्हारे पूर्वजों ने सर्वदा संतों की चरणरज अपने मस्तिष्क पर धारण की और तूने संतों का अपमान किया। जा, मेरा शाप है - तूने सर्प के द्वारा मेरे पिता का अपमान किया है। तो आज से सप्तम दिवस सर्प का ही तुझे ग्रास बनना पड़ेगा, सर्पदंश से तेरी मृत्यु होगी। ऐसा कहकर जल छोड़ दिया और वह बालक अपने पिता के सम्मुख आया। गले में मरा हुआ सर्प देखा तो, 'मुक्तकण्ठो रुरोद ह' इतना क्रोध उस बालक को हुआ कि अपमान की आग में जलता हुआ रोने लगा। जब जोर-जोर से रोया तो शमीक मुनि की समाधि खुल गई। नेत्र खोलकर देखा कि गले में मरा सर्प पड़ा है। उतारकर फेंक दिया। पुत्र को गोद में ले लिया, बेटा! क्या हुआ? तू इतना क्यों रो रहा है? कण्ठावरुद्ध होने से बालक तो कुछ नहीं बता ...