stories of bhagwat puran,moral stories from bhagavatam
stories of bhagwat puran
moral stories from bhagavatam
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[ भाग-11,part-11 ]
॥ द्वितीय स्कन्धः॥
देखो! एक स्थूल ध्यान है, एक सूक्ष्म ध्यान है। ये विश्व में जहाँ तक दृष्टि जा रही है और जो भी दिखाई पड रहा है, ये भी परमात्मा का एक स्वरूप है।' चौदह भुवनात्मक इस ब्रह्माण्ड में मृत्युलोक भगवान् की कमर है। इस मृत्युलोक के नीचे भी सात लोक हैं और ऊपर भी सात लोक है। नीचे के सात लोक - अतल, वितल. सुतल, तलातल, रसातल, महातल और पाताल। भगवान् के चरणों का जो तलुआ है, ये पाताललोक है। ऊपर भी सात हैं - भू, भुवः, स्वः, मह, जन, तप और सत्य। भगवान् का शीर्षस्थान सत्यलोक है। इस प्रकार चौदह भुवन ही भगवान् का विराट-वपु है। ये सारा ब्रह्माण्ड परमात्मा का स्वरूप है। जो सौंदर्य तुम्हारे चित्त को अपनी ओर खींचे, जिस सुंदरता पर मन मुग्ध हो जावे उसी में माधव की मुस्कान का दर्शन करना चाहिये। खिला हुआ सुमन चित्त को खींच रहा है, तो कि भगवान् मुस्कुराकर हमारे चित्त को ही चुरा रहे हैं - ऐसी भावना करना चाहिये। आकाश में रंग-बिरंगे पक्षी उड़ रहे हैं, यही भगवान् की चित्रकला है, कारीगरी है। चा जितना बढ़िया-बढ़िया चित्र बना लो, पर दस-बीस साल में ही फीके पड़ जाते हैं। पर मोर के पंख पर क्य चित्रकारी भगवान् ने कर डाली कि सालों तक रखे रहो, रंग भी फीका पडने वाला नहीं है।
'वयांरि तद्व्याकरणम्'
विचित्र कृति है प्रभु की। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - ये चारों वर्ण भगवान् के ही अंग हैं। परीक्षित! उस परमात्मा ने जगत् में जन्म दिया और जीव के भोजन का भी सारा प्रबन्ध किया, जीवनरक्षा का भी सारा प्रबन्ध किया। रहने के लिये पर्वतों में गुफायें बना दी, पीने के लिये पर्वतों में झरने गिरा दिये, भोजन के लिये पर्वतों के ऊपर ये सुंदर-सुंदर फलदार वृक्ष पैदा कर दिये। अब जीवन धारण के लिये बस इतना ही चाहिए - रोटी, कपड़ा और मकान। भोजन के लिये वृक्षों में फल दिये, पीने के लिये पर्वतों में पानी के झरने दिये तथा रहने के लिये पर्वतों में गुफायें दे दी। अब पहाड़ों में रहो प्रेम से हरि का भजन करो। अब आवश्यकता बढ़ाते जाओगे, तो अविष्कार भी बढ़ते जायेंगे। और प्रकृति से ज्यादा छेड़छाड़ करोगे, तो प्रकृति भी कोप करके आपको कष्ट प्रदान करने लगेगी। संत को चाहिये कि भगवान् के दिये हुए उस उपहार में प्रसन्न रहे। बर्तन लेकर चलने की जरुरत नहीं। कर (हाथ) को ही पात्र बनाकर (करपात्री ) बनकर भोजन करो।
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धर्मसम्राट प्रात:स्मरणीय यतिचक्रचूडामणि स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज का नाम ही इसलिये पड़ा क्योंकि वे अपने हाथ में ही प्रसाद पाते थे, कोई पात्र नहीं रखते थे। वैसे उनका नाम तो स्वामी श्रीहरिहरानन्दसरस्वती था, परन्तु कर (हाथ) को ही पात्र बनाकर पाते-पाते नाम ही उनका स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराज हो गया।
सत्यां क्षितौ किं कशिपोः प्रयासैः।
अरे ! संतो का तो सारी धरती ही बिछौना है। और ये लम्बी-लम्बी भुजायें हैं, ये ही महात्माओं के तकिये बन जाती हैं। भुजा मोड़कर सिर के नीचे लगा लिया और बन गया तकिया। हाथ ही उनके पात्र हैं। कपड़ों को आवश्यकता पड़े तो वृक्षों की जो छाल है, वह ही उनके कपड़े बन जाते हैं। वृक्षों ने अभी भोजन देना बंद नहीं किया।
एक महात्मा जंगल में बैठे-बैठे सोच रहे थे-चलो! आज हलवा खायें। अब जंगल में बाबा को हलवा कहाँ से आवे? इतने में पका हुआ केला मिल गया और केला छीलकर जैसे-ही महात्मा ने पाया, सो खुश होकर बोले, वाह सरकार ! क्या गजब का हलवा पैकिंग करके भेज दिया। पैक करके ठाकुरजी ने हलवा बनाकर ही प्रकृति द्वारा संतों को दिया है। अब पैकिंग खोलो, हलवा निकालकर पा लो। कैसे अद्भुत रस अनार के भीतर भर दिये, आम के भीतर भर दिये। ये सब परमात्मा का दिया हुआ भोजन है, प्रेम से पाओ, स्वस्थ रहो तथा हरि का भजन करो। जो परमात्मा के आश्रित रहते हैं, उनके लिये सारा प्रबन्ध परमात्मा ने किया है।
माँ के पेट में थे, तब कौन खिलाता था? उस समय भोजन किसने दिया? ठाकुरजी ने ही तो प्रबन्ध किया। माँ के गर्भ में बालक आप्यायनी नाम की नाड़ी से सारा रस ग्रहण करता रहता है। बालक को कोई कष्ट न हो, तो वहाँ पर भी उसे सुरक्षा के कवच में व्यवस्थित कर दिया। अब बालक जगत् में आने में समर्थ हो गया, तो प्रसूति वायु के प्रबन्ध के द्वारा तुरन्त माँ के गर्भ से बाहर निकाल दिया। ये भी तो प्रबन्ध उसी का है। समय पर ही प्रसूति वायु आकर उसे गर्भ से बहिर्भूत करती है। अब जगत् में अभी-अभी आया है, जगत् की वस्तुओं को खाने में अभी समर्थ नहीं है तो कैसे भरण-पोषण होगा? भगवान् ने तुरन्त माँ के स्तनों में दूध का संचार कर दिया। लोग कहते हैं, क्षीर सागर एक कपोल-कल्पना है। दूध के भी कहीं समुद्र हुआ करते हैं? अरे भैया! प्रभु के पास यदि क्षीर-सागर न हो, तो लाखों जीव जन्म ले रहे हैं उनके दूध की सप्लाई कहाँ से होती? चौरासी लाख यौनियां हैं, किसी का भी बच्चा हो। पर जिसने भी जन्म लिया, भगवान् ने अपने क्षीरसागर से माँ के स्तनों में दूध का कनेक्शन फिट कर दिया और बालक को दुग्धपान होने लगा। बालक के निमित्त ही वह दुग्ध है।
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डॉक्टर भी कहने लगे हैं, माँ का दूध पिलाओ, बच्चा स्वस्थ्य रहेगा। क्योंकि ठाकुरजी दे ही उसके लिये रहे हैं। ___माँ के दुग्ध का पान करने के लिये बच्चे को दातों की आवश्यकता नहीं पड़ती, इसलिये भगवान् ने दाँत दिये ही नहीं। परन्तु अब कुछ खाने-पीने की इच्छा बालक में जागी, कुछ सामर्थ्य भी शरीर में आने लगी तो दातों की आवश्यकता पडने लगी। तो गवान् ने छोटे-छोटे से दाँत भी दे दिये, दूध के दाँत। अब देना प्रारम्भ किया क्योंकि अब आवश्यकता पड़ने लगी। और जहाँ इधर-उधर की वस्तुओं को बालक पाने लगा तो भगवान् को लगा कि अब दूध की आवश्यकता नहीं रही, तो कनेक्शन काट दिया। अब दूध नहीं मिलेगा. खाओ।
बाहर की वस्तुओं का सेवन करते-करते बालक बड़ा होने लगा, स्वस्थ होने लगा, धीरे-धीरे नवयुवक बन गया। अब तो बड़े-बड़े चनों को भी चबाकर खा जाता है, जठराग्नि भी प्रबल हो गयी। सो ही भगवान् कहते हैं, अब दूध वाले दातों से काम नहीं चलेगा, अब तो मजबूत वाले दाँत रखो। सो दूध के दाँत वापिस लेने लगे और दूसरे मजबूत दाँत देने लगे। अब इनसे चाहे जितना चबाओ, चाहे जो कुछ चबा जाओ। युवावस्था में स्वस्थ दाँत दे दिये। परन्तु जहाँ जवानी ढलने लगी, बुढ़ापा आने लगा, मन्दाग्नि पेट में पड़ने लगी अब खट्टी डकारें आने लगी, कुछ हजम ही नहीं होता। तो भगवान् कहते हैं, अब दाँत वापिस करो, फिर बन जाओ बेदान्ती। अब दाँत छोड़े और एकान्त में बैठकर फलाहार करके, फिर हरि का भजन करो तथा जीवन के लक्ष्य को समझो। फलाहार करोगे तो स्वस्थ रहोगे। उल्टा सीधा खाओगे तो फिर बीमार पड़ोगे। इसलिये दाँत ही वापिस ले लिये।
ये सारी अद्भुत व्यवस्था कौन कर रहा है?
ये सब संचालन किसके द्वारा हो रहा है? अरे भाई! जब चित्र दिखाई पड़ता है, तो चित्र देखते ही चित्रकार का स्मरण स्वाभाविक होता है। जब कोई सुन्दर मूर्ति दिखाई पड़ती है, तो मूर्तिकार का ध्यान आ ही जाता है। कृति को देखकर कर्ता का स्मरण हो ही जाता है। कोई कृति अपने आप नहीं बनती, उस कृति का कोई-न-कोई कर्ता होता है। तो जगत् है परमात्मा की कृति। इस जगत् को देखकर उस कर्ता का भी तो स्मरण करना चाहिये। फूलों में कितने सुन्दर-सुन्दर रंग भर दिये, जीवों के भरण-पोषण का कितना सुंदर-सुंदर प्रबन्ध कर दिया इन सबका प्रबन्धक कौन है? सूर्य-चन्द्रमा का ये संतुलन कौन बना रहा है? वह भगवान् सूर्य थोड़ा नीचे खिसक आवे तो धरती भस्म हो जाये। और तनिक ऊपर खिसककर चले जायें, तो इस धरती पर बर्फ बन जाये। ये संतुलन किसने बना रखा है? ये असंख्य तारे आपस में घूम रहे हैं? ये सब प्रबन्ध करने वाला कोई तो प्रबन्धक है? इस जगत् को देखकर उन जगदीश्वर का जो सबके प्रबन्धक हैं, उनका ध्यान करना चाहिये स्मरण करना चाहिये।
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बड़ा ही सुन्दर श्रीशुकदेवजी महाराज ने भगवान् के स्थूलरूप में ध्यान की विधि बतलाई। तदुपरान्त सद्योमुक्ति व क्रममुक्ति का मार्ग बतलाया। जो ब्रह्मलोक के सुखों का भोग करना चाहते हैं, वह अपने सूक्ष्मशरीर को लेकर ही ऊर्ध्वगति से ऊर्ध्वलोकों का गमन करते हैं। और जो केवल उस परमतत्त्व को ही पाना चाहते हैं, वह इस स्थूलशरीर और सूक्ष्मशरीर – दोनों का त्याग करके अपनी विशुद्ध आत्मा को परमात्मा में विलीन करते हैं। किस कामना से किस देवता का यजन-पूजन करना चाहिये, वह सब शुकदेव भगवान् ने बतलाया। अन्न की कामना है, तो अदिति माँ की उपासना करो। रूप की कामना है, तो गंधर्वो की उपासना करो। विद्या की कामना है, तो भोलेनाथ की उपासना करो। दाम्पत्य जीवन सुखमय चाहते हो, तो माता भवानी की उपासना करो। इसके विपरीत, यदि कुछ न चाहते हो, तो भगवान् नारायण की उपासना करो।
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥
(भा. 2/3/10)
निष्काम हो या सकाम – मानवमात्र को परमात्मा प्रभु श्रीनारायण की उपासना तो करनी ही चाहिये। क्योंकि मनुष्य शरीर ही उपासना के लिये मिला है। जो मानव तन पाकर भी प्रभु की आराधना उपासना नहीं करता, वह मानव पशुतुल्य है।
श्वविड्वराहोष्ट्रखरैः। संस्तुतः पुरुषः पशुः पहली उपमा है कुछ । जो संसार के विषयों में ही रमे रहते हैं और छोटी-छोटी बातों पर आपस में कलह करते रहते हैं, झगड़ते रहते हैं, एक-दूसरे पर गाली-गलौज करते हैं। कुत्ता भी यही सब कुछ करता है।
बिटबराह (ग्रामीण सूकर) दूसरी उपमा है। इसका लक्ष्य ही बन गया है, उलटा-सीधा जैसा जहाँ से भी मिले हड़प लो। न जाने कितना बड़ा पेट हो गया, ये तृष्णा शान्त होती ही नहीं। तृष्णा की आग उत्तरोत्तर प्रबल होती चली जा रही है। सबसे बड़ा दरिद्री तो वही है, जिसकी तृष्णाऐं बड़ी हों।
स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला
क्या उचित है, क्या अनुचित है, सबको ताक पर रखकर जैसा भी मिले, ग्रहण कर लो। पहले लोग दूषित धन से डरते थे, बेईमानी का पैसा है, बुद्धि खराब हो जायेगी, सन्तान दूषित हो जायेगी। हमें नहीं चाहिये भैया! जिसे चाहो बाँट दो। लोग डरते थे और आज आँख मूंदकर पीछे पड़े हैं। और कुछ लोगों का तो काम ही यही है कि कहाँ मिलेगा? कैसे मिलेगा? कई लोग तो जिंदगी बर्बाद कर देते हैं, खोदने-खोदने में। बिटबराह के समान है, जो ऊटपटांग कुछ भी ग्रहण किये चले जा रहे हैं।
तीसरी उपमा है ऊँट। थोड़ा पद मिल गया, धन मिल गया, वैभव मिल गया, विद्या मिल गई, तो 'गर्वेण तुंगशिरः' अहंकार में मुँह उठाकर चलने लगता है। संत-महापुरुषों को प्रणाम करने में भी शर्म आने लगती है। हम इतने बड़े आदमी हैं, इन बाबा को प्रणाम करें? ऐसे देहाभिमानियों को देखकर ऊँट कहता है कि भाई! चाल तो हमारे ही जैसी है। जैसे हम लोग मुँह उठाकर चलते हैं, ऐसे ही देखो ! बिल्कुल हमारी ही तरह चला आ रहा है।
और चौथी उपमा है गधा। जो जीवनपर्यन्त अपने घर-गृहस्थी का ही बोझा ढोने में लगे हुए हैं, जर्जरित काया हो गई, घर में कोई पूछने वाला नहीं, बात करने वाला नहीं, खटिया पकड़े लेटे हैं और फिर भी कहो कि बाबा! भजन करो! जवाब मिलता है, महाराज! नातिन की शादी और निपट जाती, फिर भजन ही करना था। बस उसी का टेंशन रहता है। लो! घर वाले सोच रहे हैं कि ये कब पधारें? तब बिटिया की शादी करें, भरोसा नहीं बीच शादी में ही चले जायें? ये पधार जावेंगे, तभी बेटी का विवाह रचायेंगे! और वह कह रहा है, जबतक नातिन का विवाह नहीं देख लूंगा, मैं जाने वाला नहीं - ये विडम्बना है महाराज! अभी भी चिन्ता का बोझा सिर पर लादे पड़ा है। शरीर चल नहीं रहा, फिर भी चिन्ता का बोझा लाद रहा है।
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गधा कहता है, मैंने भी बहुत भार ढोया। जबतक शरीर में शक्ति थी, मालिक के लिये बहुत मजदूरी की। ईटें ढोई, गिट्टी ढोई, पर कभी धन्यवाद हमें नहीं मिला। जब भी देता था, तो दो डंडे ही देता था। आज तक किसी गधे को पारिश्रमिक नहीं मिला, कोई पुरस्कार नहीं मिला कि ये बड़ा परिश्रमी है, बड़ा मेहनती है। और जब उसी शरीर में बल नहीं रह जाता, तो उसी गधे को डंडा मारकर मालिक निकाल देता है। वही हालत संसारियों की भी होती है। जबतक नोट हैं, शरीर में थोड़ा बल है, कमाने की सामर्थ्य है, खूब बादाम के हलवा खिलाये जाते हैं, पिताजी ! कोई सेवा का मौका दीजिये। घर में किसी प्रकार की चिन्ता न कीजिये। प्रेम से रहिये। और जब देख लिया कि पिताजी के पास नोट-पानी सब खत्म हो गया, कुछ नहीं बचा। तो, वाह! जब हम चार भैया हैं, तो हम ही इन्हें क्यों पालें? हमने कोई ठेका ले रखा है? बँटवारा बराबर हुआ, पिताजी ! जाइये वहां, नहीं तो जाइये! तीर्थयात्रा कीजिये। आँखों से देखने को मिलते हैं ऐसे दृश्य। उस समय गधा कहता है, जो हालत हमारी हुई, सो ही तुम्हारी हो रही है।
वह पुरुष पशु तुल्य ही तो है? उन पशुओं की तरह ही जीवन है। ये मानव देह जो परमदुर्लभ था, उसे पशुओं की तरह खाने-पीने सोने में ही बर्बाद कर दिया। अरे ! जिसके नेत्र हरि का दर्शन करते हर्षाते नहीं, ऐसे नेत्र जिन्होंने प्रभु की छटा को कभी निहारा नहीं, मोर पंख के समान व्यर्थ हैं। जो कान हरि की कथा सुनते नहीं, सर्प की वाँवी के समान हैं। जो जिह्वा गोविन्द के गुणानुवाद गाती नहीं, वह दादुर (मेंढक) के समान है, व्यर्थ जीवनभर टर्राती रही।
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