bhagwat katha in hindi -12
bhagwat katha in hindi
[ भाग-12,part-12 ]
हमारे संत श्रीदरियाबजी महाराज कहते हैं -
राम नाम नहि हृदय धरा जैसा पसुआ वैसा नरा।
पशुआ आवै पशुआ जावै, पशुआ रहे पशुआ खाय ।
नर पशुआ उद्यम करि खाय, पशुआ तो जंगल चरि आये।
राम नाम जाना नहि माई, जनम गया पशुआ की नाई।
राम नाम से नाहि प्रीतिः यही सबै पशुअन की रीति ॥
जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत न चोपगायत्युरुगायगाथाः ॥
बड़ा सुन्दर वर्णन किया। अन्त में परीक्षित ने पूछ दिया, गुरुदेव! कृपा करके ये बताइये कि भगवान इस विचित्र संसार की रचना कैसे करते हैं? तब शुकदेवजी को ध्यान आया कि हमने कथा तो प्रारम्भ कर दी, पर मंगलाचरण तो अभी किया ही नहीं। तो अब शुकदेवजी प्रभु का ध्यान करके मंगलाचरण कर रहे हैं।अब बताओ! इतनी कथा कहने के बाद अब मंगलाचरण हो रहा है। परमहंस ठहरे ! दूसरा कारण एक और है कि पहले प्रश्न किया था परीक्षित ने कि मानव को क्या करना चाहिए? मरणधर्मा प्राणी का कर्त्तव्य क्या है? तो बताने लगे। परन्तु अब प्रश्न कर रहे हैं कि भगवान् जगत् की रचना कैसे करते हैं? तो भगवान् के स्वरूप का वैभव का वर्णन उनकी कृपा के बिना कर पाना सम्भव नहीं। इसलिये शुकदेवजी अब प्रभु का ध्यान कर रहे हैं।
बड़ा सुन्दर प्रभु का ध्यान करते हुए शुकदेवजी कहते हैं कि जिन प्रभु का कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण, अर्चन करने मात्र से जीव के समस्त पाप-ताप-संताप शीघ्र ही समाप्त हो जाते हैं, ऐसे प्रभु के श्रीचरणों में मेरा बारम्बार प्रणाम है।
bhagwat katha in hindi
कोई कितना भी बड़ा तपस्वी हो, मनस्वी हो, दानी हो, मन्त्रवेत्ता-ऋषि होय पर जबतक भगवान् की शरणागति ग्रहण नहीं करेगा, तबतक उसका कल्याण किसी काल में सम्भव नहीं है।
जीव का कल्याण तबतक नहीं हो सकता, जबतक भगवान् का आश्रय ग्रहण न करे। चाहे वह कितना भी बड़ा तपस्वी बन जाये। दूसरी ओर, चाहे कितना कोई पापी हो, बड़े-से-बड़ा पाप-परायण प्राणी भी हो, प्रभु के चरणों का आश्रय ले ले, तो परमपावन-विशुद्ध हो जाता है।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक।
भगवान की बड़ी सुन्दर महिमा का ध्यान करके अब शुकदेवजी कहते हैं, परीक्षित ! ध्यान से सुनो। यही प्रश्न एक बार देवर्षि नारदजी ने अपने पिता ब्रह्माजी से भी किया था।ब्रह्माजी को ध्यान लगाये एक दिन नारदजी ने देखा, तो पूछ दिया कि पिताजी! सारा संसार तो आप बनाते हो, फिर आँख बंद करके ये ध्यान किसका लगाते हो? क्या आपसे भी ऊपर कोई है? तब ब्रह्माजी हंसते हुए बोले, बेटा नारद! मेरे ऊपर भी कोई है।
पुनः नारदजी के यह पूछने पर कि आपके ऊपर कौन है, तब ब्रह्माजी ने सृष्टि-प्रक्रिया विस्तारपूर्वक अपने पुत्र नारदजी को सुनाई।
प्रकृति और पुरुष की साम्यावस्था में लय हो जाता है। साम्यावस्था में ही सृजन होता है। प्रकृति और पुरुष पृथक्-पृथक् हुये। प्रकृति का दर्शन जब पुरुष ने किया, तो पुरुष के दर्शन करते ही प्रकृति में हलचल उत्पन्न हो गई, क्षोभ उत्पन्न हुआ। उससे सर्वप्रथम महत्तत्व की उत्पत्ति हुई।
महत्तत्व के द्वारा त्रिविध अहंकार - सत्त्व, रज तथा तम की उत्पत्ति हुई। तमोगुण के द्वारा पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, आदि पंचमहाभूतों की उत्पत्ति हुई। और इसी के द्वारा पंचतन्मात्रायें - शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध – ये सब तमोगुण के द्वारा उत्पन्न हुये।
रजोगुण के द्वारा इन्द्रियों की रचना हुई। और सत्वगुण के द्वारा इन्द्रियों के अधिष्ठात्री देवों की उत्पत्ति हुई।भगवान् श्रीमन्नारायण प्रभु के नाभिकमल से ब्रह्माजी का जन्म हुआ। ब्रह्माजी कमल से प्रकट हो गये। अब सोचने लगे, हम कौन हैं? चारों तरफ देखना चाहते थे, तो चारों दिशाओं में ब्रह्माजी के चार मुख प्रकट हो गये।
पर चारों ओर ब्रह्माजी को जल और वायु के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा। पुनः विचार किया कि जिस कमल पर बैठे हैं, उसका तो कोई न कोई आधार मिलेगा। तो भीतर घुसकर खूब ढूँढ़ा, पर कोई आधार नहीं मिला तो वापिस आ गये। विचार करने लगे कोऽहम (मैं कौन हूँ?)।
तो दो शब्द इनके कान में टकराये, 'स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशम्' स्पर्श वर्णो में जो सोलहवां 'त' और इक्कीसवां अक्षर 'प' ब्रह्माजी के कान में तप शब्द सुनाई पड़ा। तब ब्रह्माजी तपस्या में संलग्न हो गये। घोर तप किया ब्रह्माजी ने तो उस दिव्य तपस्या से प्रभु ने उनके हृदय में अपनी वाणी को प्रकट किया। उसी दिव्यवाणी को चतुश्लोकीभागवत कहते हैं।
भगवान् कहते हैं, ब्रह्माजी ! जरा ध्यान से सुनियेगा। मैं अपना अत्यन्त गोपनीय ज्ञान तुम्हें प्रदान कर रहा हूँ। कोरा ज्ञान नहीं है अपितु, अनुभवजन्य ज्ञान है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्य् यत् सदसत् परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥
(भा. 2/9/32)
भगवान् कहते हैं, ब्रह्माजी ! सृष्टि के पूर्व में केवल मैं ही था और निष्क्रिय था। मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। न स्थूल था, न सूक्ष्म था एकमात्र मेरी ही सत्ता थी।
मानो यहाँ ब्रह्माजी ने जिज्ञासा की, अच्छा? प्रभु! जब आप बिल्कुल अकेले थे और आपके अलावा अन्य कुछ भी नहीं था, तो फिर ये दुनिया आपने कैसे बना दी? जिससे दुनिया बनी, वह दुनिया का कुछ-न-कुछ आपके पास साधन तो होगा?
बिना साधन के आपने अकेले ही इस दुनिया को कैसे बना दिया? आपके पास कुछ तो होगा? भगवान् बोले, नहीं कुछ भी नहीं था। इसलिये जो भी कुछ मैंने बनाया, वह बनने वाला मैं भी हूँ और बनाने वाला भी मैं ही हूँ।
क्योंकि मैं अकेला था, मेरे पास न कोई साधन था, न कोई दूसरा बनाने वाला कर्मचारी था। इसलिये बनाया भी मैंने और बना भी मैं। निमित्त कारण भी मैं और उपादान कारण भी मैं।
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