bhagwat katha hindi story,भागवत कथा हिंदी स्टोरी

bhagwat katha hindi story
भागवत कथा हिंदी स्टोरी 
[ भाग-9 ,part-9 ]
( प्रथम स्कंध )
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वजं विससर्ज ह। 
कौशिकी नदी का जल अपने हाथ में लेकर, महाराज परीक्षित को भयंकर शाप दे दिया -
इति लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि ।
दङ्क्षयति स्म कुलांगारं चोदितो मे ततदुहम् ॥ 
भा. 1/18/370 
ऐ कुलांगार! तुम्हारे पूर्वजों ने सर्वदा संतों की चरणरज अपने मस्तिष्क पर धारण की और तूने संतों का अपमान किया। जा, मेरा शाप है - तूने सर्प के द्वारा मेरे पिता का अपमान किया है। तो आज से सप्तम दिवस सर्प का ही तुझे ग्रास बनना पड़ेगा, सर्पदंश से तेरी मृत्यु होगी।

ऐसा कहकर जल छोड़ दिया और वह बालक अपने पिता के सम्मुख आया। गले में मरा हुआ सर्प देखा तो, 'मुक्तकण्ठो रुरोद ह' इतना क्रोध उस बालक को हुआ कि अपमान की आग में जलता हुआ रोने लगा। जब जोर-जोर से रोया तो शमीक मुनि की समाधि खुल गई।

नेत्र खोलकर देखा कि गले में मरा सर्प पड़ा है। उतारकर फेंक दिया। पुत्र को गोद में ले लिया, बेटा! क्या हुआ? तू इतना क्यों रो रहा है? कण्ठावरुद्ध होने से बालक तो कुछ नहीं बता सका, पर अन्य जो बालक थे उन्होंने सारा वृतान्त बतलाया।

सारा समाचार सुनते ही जहाँ ये शब्द कान में पड़ा कि मेरे पुत्र ने सात दिन में मरने का शाप दे दिया, अत्यंत खिन्नमना हो गये। अपने पुत्र से बोले, अरे! बेटा तूने कितना बड़ा अनर्थ कर दिया। जिस महाभागवत की रक्षा करने के लिये हमारे प्रभु माँ के गर्भ में गये और उत्तरा के गर्भ में जाकर उस बालक की रक्षा की, उस परमवैष्णव परीक्षित को तुमने इतना बड़ा शाप दे दिया?

अब इस भारतभूमि को परीक्षित-जैसा धर्मनिष्ठ धर्मात्मा राजा नहीं मिल सकता क्योंकि अब जो राजा होंगे, सब धर्मनिरपेक्ष होंगे। धर्म से उनका कोई मतलब नहीं होगा।

परीक्षित-जैसा धर्मात्मा कहाँ मिल सकता है? जब राजा धर्मात्मा नहीं होगा, तो प्रजा में धर्म कहाँ होगा? प्रजा जब धर्मनिष्ठ नहीं होगी, तो वर्णसंकरता फैलेगी। और ये सारे दोष का कारण तू बनेगा। हे प्रभु! ये क्या अनर्थ हो गया ! मेरे पुत्र को हमारे अपराध को क्षमा करो। पर अब जो होना था, वह हो चुका। तुरन्त अपने सेवक को भेजकर परीक्षित को ये सारा समाचार सुनाया।
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भागवत कथा हिंदी स्टोरी 
जहाँ परीक्षित महाराज ने सुना कि सातवें दिन मरना सुनिश्चित है, तो सर्वस्व त्यागकर सीधे गंगातट पर शुकतीर्थ में जाकर विराजमान हो गये। पश्चात्ताप की आग में जल उठे, जिन संतों का मैंने सर्वदा सम्मान किया, आज उन संतों का अपमान करने की भावना मेरे मन में आई कैसे? ये नीचकर्म मैं तो सोच भी नहीं सकता था।

अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं निरागसि ब्रह्मणि गूढ़तेजसि। 
बारम्बार पश्चात्ताप करते हुए महाराज परीक्षित गंगातट पर आकर विराजमान हो गये। ऋषि-मुनियों को पता चला कि हमारे सम्राट् को सातवें दिन मरने का शाप लग गया है, तो जितने सिद्धकोटि के दिव्य महापुरुष थे, सब-के-सब परीक्षित के पास दौड़े दौड़े आये -
अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वानरिष्टनेमि गुरङ्गिराश्च।
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम उतथ्य इन्द्रप्रमदेध्मवाही ॥ 
(भा. 1/19/9) 
अत्रि, वसिष्ठ, पराशर, भृगु, परशुराम, विश्वामित्र, आदि सब-के-सब आये। इतने संतों का समुदाय परीक्षित ने जब गंगातट पर आते देखा, तो गद्गद होकर सबको दण्डवत् किया। विधिवत् पूजन किया और कहने लगे, महाराज! समझ में नहीं आता। मुझ क्षत्रबंध के ऊपर आपने कैसे अनग्रह किया?

मैंने तो संत का अपमान किया, पर धन्य हैं संत ! जो मुझे घर बैठे अनुग्रह प्रदान करने के लिए पधारे। आप समस्त संतों के चरणों में शत शत प्रणाम। लेकिन, एक ही बात जानना चाहता हूँ कि मरने वाले को क्या करना चाहिये।  'म्रियमाणस्य किं कर्तव्यम्' चर्चा हो ही रही थी कि,
तत्राभवद्भगवान् व्यासपुत्रो यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः।
 अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो वृतश्च बालैरवधूतवेषः ॥ 
(भा. 1/19/25) 
अचानक ! ऋषि-मुनियों के बीच में साक्षात् भगवान् प्रकट हो गये। शौनकजी ने पूछा, महाराज! कौन-से भगवान् प्रकट हो गये? सूतजी बोले, 'भगवान् व्यासपुत्रः' मानो भक्त की रक्षा करने के लिये भगवान् ही व्यासनन्दन शुकदेवजी बनकर प्रकट हो गये।

पहले परीक्षित पर संकट आया, वह भी ब्राह्मण था – अश्वत्थामा। उसने छोड़ा ब्रह्मास्त्र का बाण तो उस अस्त्र से बचाने के लिये भगवान् भी अपने शस्त्र सुदर्शनचक्र को लेकर छोड़े और परीक्षित की रक्षा की। अस्त्र का संकट आया, तो अस्त्र लेकर भागे।

इस बार, इस ब्राह्मण ने वाग्वज्र अर्थात् वाणी का वज्र चलाया है मारने के लिये, तो भगवान् भी व्यासनन्दन शुकदेव बनकर वाणी से ही रक्षा करने के लिये प्रकट हो गये। इसलिये केवल व्यासनन्दन शुकदेव नहीं, अपितु 'तत्राभवद्भगवान् व्यासपूत्रो' मानो भगवान् ही व्यासपुत्र के रूप में पधारे हैं।

स्वेच्छा से भ्रमण करते हुए जा रहे हैं। 'अलक्ष्यलिंगः - स्त्री-पुरुष भेदरहितः' - ऐसे परमहंसाचार्य श्रीशुकदेवजी कि जिन्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि स्त्री और पुरुष किसे कहते हैं। उनकी दृष्टि में तो सबमें बड़ी एक सत्ता है।

सीय राममय सब जग जानी। 
निजलाभतुष्टः - निजायाः श्रीराधाकृष्णयोः तयोर्दर्शन एव लाभस्तेन संतुष्टः। 
भगवान् शुकदेव निजानन्द में परिपूर्ण हैं। इनका तो परमानन्द इनके भीतर ही विराजमान है। उनके तो हृदयकमल में ही श्रीप्रिया-प्रीतम का नित्यनिवास है। उन्हें में सदा रमण करते रहते हैं, रमते रहते हैं। बहिरंग दृष्टि इनकी होती ही नहीं, दुनिया वालों पर दृष्टि इनकी जाती नहीं।

ऐसे परमहंसशिरोमणि हैं श्रीशुकदेव जी। सोलह वर्ष की उम्र में भी नग्न अवस्था में घूम रहे हैं, 'दिगम्बरं वकाविकीर्णकेशम्' केश खुले हुए हैं, दिगम्बर स्वरूप है, बड़ी-बड़ी विशाल भुजायें हैं, दिव्य-आभा मुखकमल पर चमक रही है।
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इस मुखकान्ति को देखकर कई सुन्दरियां इनके पीछे लग जाती हैं और कई गाँव के बच्चे हाथ-धोकर इनके पीछे पड़ जाते हैं। ताली बजाकर, नंगा बाबा आ गया ... नंगा बाबा आ गया' बच्चों की भीड पीछे लग जाती है, पर शुकदेवजी पर कोई अन्तर नहीं पड़ता।

कोई अनुरागपूर्वक निहार रहा है, तो कोई हमारा उपहास कर रहा हैय शुकदेवजी दोनों में बराबर। ऐसे श्यामविग्रहस्वरुप शुकदेवजी का दर्शन किया, तो जितने सिद्धकोटि के संत गंगातट पर बैठे थे, सब-के-सब उठकर खड़े हो गये और शुकदेव भगवान् की जय-जयकार करने लगे। परीक्षित आश्चर्य चकित हो गये, कि सोलह वर्ष का ये बालक आया और ये दस-दस हजार वर्ष की दीर्घायु वाले महात्मा खड़े होकर स्वागत कर रहे हैं। इसका मतलब है कि बालक साधारण नहीं है. कोई सिद्ध विभूति है। परीक्षित ने तुरन्त खड़े होकर शुकदेवजी को साष्टांग दण्डवत् किया।
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महाराज परीक्षित ने खड़े होकर दण्डवत् किया, आसन दिया, षोडशोपचार पूजन किया। जब महाग परीक्षित को पूजन करते हुए उन बालकों और स्त्रियों ने देखा तो घबड़ा गये। सोचने लगे कि जिसे पागल बाद समझकर पीछा कर रहे थे, ये तो कोई सिद्ध बाबा निकल पड़ा। अरे !

हमारे सम्राट इसे साष्टांग दण्डवत करत पूजा कर रहे हैं। यदि महाराज ने हमें देख लिया तो लेने के देने पड़ जायेंगे। ऐसा सोचकर सब भाग गये। परीक्षित महाराज ने विधिवत् पूजन किया और कहा, भगवन् ! आज मैं धन्य हो गया। मुझ-जैसे क्षत्रबंध के ऊपर आपने अनुग्रह किया, सहज पधारकर दर्शन दिया, अरे!

आप-जैसे संतों का तो कोई स्मरण भर कर ले तो पापमुक्त हो जाये। स्मरण के साथ-साथ कहीं आप जैसे संतों का दर्शन मिल जाये, फिर तो कहना ही क्या।

और दर्शन के साथ-साथ कहीं आपका चरणोदक मिल जाये फिर तो पूछना क्या! और चरणोदक के साथ-साथ कहीं आपके वचनों की गंगा में गोता लगाने को मिल जाये तब तो फिर पाप का लेश भी शेष नहीं रह सकता। अंशमात्र भी पाप है, तो वह भी टिक नहीं सकता।

येषां संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुध्यन्ति वै गृहाः। 
किं पुनदर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः॥ 
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् । 
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ॥
(भा. 1/19/33 व 37) 
परीक्षितजी कहते हैं, मैं धन्य हो गया महाराज! केवल एक ही बात जानना चाहता हूँ। आप योगियों के भी परमगुरु हैं। अतः आपसे पूछना चाहता हूँ कि 'म्रियमाणस्य किं कर्त्तव्यम्' हर मरणधर्मा प्राणी का क्या कर्त्तव्य है, वह कृपा करके बताइये। जीवन में क्या श्रवणीय है, क्या स्मरणीय है, कौन भजनीय है, जीव का कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है? इसे जरा विस्तारपूर्वक मुझे समझाइये।

शुकदेवजी बोले, बैठने की देर नहीं हुई और तुमने आते ही प्रश्नों की झड़ी लगा दी। अरे! कोई आवे, तो पहले उसे प्रेमपूर्वक बैठने तो दो। परीक्षित महाराज कहते हैं, आप-जैसे महापुरुष ज्यादा देर तक बैठते ही कहाँ हैं। गौदोहन काल से ज्यादा टिकते नहीं। इसलिये मैंने तुरन्त प्रश्न किया है कि अब आप इन प्रश्नों का समाधान देकर ही यहाँ से प्रस्थान कर सकेंगे।
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