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Showing posts from March, 2020

bhagwat katha hindi me story,भागवत कथा हिंदी में स्टोरी -10

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bhagwat katha hindi me story भागवत कथा हिंदी में  स्टोरी  [ भाग-10,part-10 ] ॥ द्वितीय स्कन्धः॥ (साधन) शुकदेवजी परीक्षित के इन प्रश्नों पर विमुग्ध हो गये। गद्गद् होकर बोले-- वरीयानेष ते प्रश्नः कृतो लोकहितो नृप ।  आत्मवित्सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥ (भा. 2/1/1)  देखिये! डकार उसी की आयेगी, जो आपके भीतर भरी होगी। मली खाकर आयें हैं, तो मूली की डकार अपने आप बता देती है कि मुली खाकर बैठे हैं। शुकदेवजी का जो प्रथम अक्षर मुख से निकला, वह भी ब्रह्म का ही बीज निकला। व-कार जो है, वह ब्रह्म का बीज है। और शुकदेवजी के मुख से पहला व-कार ही निकला, वरीयानेष ते प्रश्नः' व शब्द पहले निकला, क्योंकि ब्रह्म का बीज व है और ब्रह्मानन्द शुकदेवजी के भीतर भरा है। शुकदेव बाबा कहते हैं, परीक्षित ! ये प्रश्न तुमने अपने लिये नहीं किया है। यदि परीक्षित ये पूछते कि महाराज ! मैं सातवें दिन मरने वाला हूँ, कुछ बचने का उपाय बतलाओ तो ये व्यक्तिगत प्रश्न होता। परीक्षित का प्रश्न ये है कि मरने वाले को क्या करना चाहिये? तो मरने वाले कोई परीक्षित अकेले थोड़े-ही हैं? इसका...

bhagwat katha hindi story,भागवत कथा हिंदी स्टोरी

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bhagwat katha hindi story भागवत कथा हिंदी  स्टोरी  [ भाग-9 ,part-9 ] ( प्रथम स्कंध ) कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वजं विससर्ज ह।  कौशिकी नदी का जल अपने हाथ में लेकर, महाराज परीक्षित को भयंकर शाप दे दिया - इति लङ्घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि । दङ्क्षयति स्म कुलांगारं चोदितो मे ततदुहम् ॥  भा. 1/18/370  ऐ कुलांगार! तुम्हारे पूर्वजों ने सर्वदा संतों की चरणरज अपने मस्तिष्क पर धारण की और तूने संतों का अपमान किया। जा, मेरा शाप है - तूने सर्प के द्वारा मेरे पिता का अपमान किया है। तो आज से सप्तम दिवस सर्प का ही तुझे ग्रास बनना पड़ेगा, सर्पदंश से तेरी मृत्यु होगी। ऐसा कहकर जल छोड़ दिया और वह बालक अपने पिता के सम्मुख आया। गले में मरा हुआ सर्प देखा तो, 'मुक्तकण्ठो रुरोद ह' इतना क्रोध उस बालक को हुआ कि अपमान की आग में जलता हुआ रोने लगा। जब जोर-जोर से रोया तो शमीक मुनि की समाधि खुल गई। नेत्र खोलकर देखा कि गले में मरा सर्प पड़ा है। उतारकर फेंक दिया। पुत्र को गोद में ले लिया, बेटा! क्या हुआ? तू इतना क्यों रो रहा है? कण्ठावरुद्ध होने से बालक तो कुछ नहीं बता ...

देवर्षि नारद का प्रचेताओं को उपदेश,Devarshi Narada's teachings to the angels

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Devarshi Narada's teachings to the angels तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वचः ।  नृणां येनेह विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वरः ।। नारद जी कहते हैं प्रचेताओं इस संसार में मनुष्य का वही जन्म, कर्म आयु, मन और वाणी सफल है, सार्थक है जिसके द्वारा विश्व श्री हरि का भजन किया जाय, ध्यान किया जाय, चिन्तन किया जाय । किं वा योगेन सांख्येन न्यासस्वाध्याययोरपि ।  किं वा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः ।। जिनके द्वारा अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाले श्री हरि को प्राप्त न किया जाय ऐसे योग, सांख्य, संन्यास, वेदाध्ययन और व्रत वैराग्यादि साधनों से मनुष्य को क्या लाभ है । श्रेयसामपि सर्वेषामात्माह्यवधिरर्थतः ।  सर्वेषामपिभूतानां हरिरात्मात्मदः प्रियः ।। संसार में जितने लाभ माने जाते हैं उनमें आत्म लाभ सबसे बड़ा लाभ है, और आत्म ज्ञान प्रदान करने वाले श्री हरि ही सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा हैं । जीवन्मुक्त पुरूष आत्मलाभ को ही सबसे बड़ा लाभ मानते हैं । यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।  प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणा तथैव सर्वाहणमच्युतेज...

bhagwat katha hindi,भागवत कथा हिंदी

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bhagwat katha hindi भागवत कथा हिंदी  [ भाग-8 ,part-8 ] भीमापवर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत्।  धिक्कार है ऐसी जीवन की आशा को। ये भी भला कोई जीवन है? धृतराष्ट्र बोले, विदुर ! तो कहाँ जाऊँ। क्या करूँ? विदुरजी बोले, चलो मेरे साथ! और रातों-रात धृतराष्ट्र व गांधारीजी को लेकर विदुरजी बाहर निकल गये। नियमानुसार प्रात:काल जब पाण्डवों ने जागते ही ताऊजी को दंडवत करने के लिए भवन में प्रवेश किया, तो ताऊजी का कोई पता नहीं चला। संजय से पूछा तो संजय ने भी मना कर दिया, मुझे भी नहीं मालूम। बहत ढूँढने पर दूर-दूर तक कोई पता नहीं चला, तो श्रीयुधिष्ठिरजी महाराज दुःखी हो गये। न जाने ! हम लोगों से क्या अपराध बन गया? कौन-सी बात हमारे ताऊजी को बुरी लगी, जो हमें चुपचाप बिना बताये ही भाग गये? उसी समय देवर्षि नारद तुम्बुरु गन्धर्व के साथ प्रकट हुये और धर्मराज को समझाया कि राजन् ! आप दुःखी न होइये! अब तुम्हारे ताऊजी को विदुर जैसे-महापुरुष का सान्निध्य मिल गया है। अब उनका निश्चिन्त कल्याण हो जायेगा, उनकी ओर से आप निश्चिन्त हो जाइये। तब पाण्डवों को शान्ति मिली। bhagwat katha hindi भाग...

प्रह्लाद-चरित,prahlad charitra,part-2

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प्रह्लाद-चरित prahlad charitra,part-2 प्रसंग यह चल रहा है कि भगवान् देवताओंका पक्षपात क्यों करते हैं और दैत्योंको क्यों मारते हैं? देवताओंसे क्या राग है और दैत्योंसे क्या द्वेष है? भगवान् तो स्वयं निर्गुण हैं, अजन्मा हैं, सबमें सम हैं, सबके प्रिय हैं, सबके सुहृद हैं; फिर भगवान्का ऐसा व्यवहार क्यों? तो भगवान्के गुणोंपर एक शङ्का हो गयी। उसका समाधान यहाँ करते हैं ।  बहुत सीधी बात है कि शुद्ध-वस्तु जो काम करती है वह काम और उसके साथ यदि कोई उपाधि जुड़ जाये तब वह क्या काम करती है-दोनों में फर्क होता है। जैसे-हम सूर्य को देखते हैं, तो सूर्य हमको कोई हाथभर लम्बा-चौड़ा दिखायी पड़ता है और इसी सूर्यको जब विज्ञानकी दृष्टिसे देखते हैं तब पृथिवीसे कई लाख गुणा सूर्यका आकार है। तब फिर हमें सूर्य छोटा क्यों दीखता है? इसलिए दीखता है कि हमारी आँख और सूर्यके बीचमें दूरीकी उपाधि है। पर क्या सूर्य छोटा हो गया? नहीं, सूर्य छोटा नहीं हुआ है, हमारे देखनेका औजार जो है वह छोटा है। और देखो, आकाशमें जब बादल आ जाता है तब सूर्यकी रोशनी कम दिखने लगती है। ग्रहण जब लगता है तब सूर्य ढंकने लगता है और ...

भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण,स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन

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प्रह्लाद-चरित (१) भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन यदि आप अपने मनमें भगवत्-सम्बन्धी वासना बनायेंगे तो आप किस जातिके हैं, यह बात आपसे नहीं पूछी जायेगी। जैसे, प्रह्लाद दैत्य-वंशमें पैदा हुए थे, उनकी माता कोई बहुत ऊँचे वंशकी नहीं थी और उनके पिता हिरण्यकशिपु तो अभिशप्त थे-भगवान्के परम भक्त सनकादिकोंके शापसे वे असुर हो गये थे। तो पिता भी अच्छा कहाँ हुआ और माता भी अच्छी कहाँ हुई? फिर भी इनके पुत्र प्रह्लादकी भगवान्ने पग-पग पर रक्षा की और उन्हें अपना साक्षात्कार कराया। इस विषयमें राजा परीक्षितके मनमें एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ, जिसका समाधान श्रीशुकदेवजी महाराजने श्रीमद्भागवतके 'सप्तमस्कन्ध में किया है। राजा परीक्षित श्रीशुकदेवजी महाराजसे प्रश्न करते हैं समः प्रियः सुहृद् ब्रह्मन् भूतानां भगवान् स्वयम्।  इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यानवधीद्विषमो यथा ॥ (भागवत ७.१.१) महाराज, एक बात बताइये कि जब ईश्वर सम हैं, ईश्वर सबके लिए आनन्ददाता हैं, ईश्वर सबके हितकारी हैं और किसी निमित्तसे नहीं हैं, स्वयं हैं अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंके लिए सम हैं, प्रिय हैं, सहद हैं, ...