भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण,स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन

प्रह्लाद-चरित (१)
भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण
स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन
यदि आप अपने मनमें भगवत्-सम्बन्धी वासना बनायेंगे तो आप किस जातिके हैं, यह बात आपसे नहीं पूछी जायेगी। जैसे, प्रह्लाद दैत्य-वंशमें पैदा हुए थे, उनकी माता कोई बहुत ऊँचे वंशकी नहीं थी और उनके पिता हिरण्यकशिपु तो अभिशप्त थे-भगवान्के परम भक्त सनकादिकोंके शापसे वे असुर हो गये थे। तो पिता भी अच्छा कहाँ हुआ और माता भी अच्छी कहाँ हुई? फिर भी इनके पुत्र प्रह्लादकी भगवान्ने पग-पग पर रक्षा की और उन्हें अपना साक्षात्कार कराया।

इस विषयमें राजा परीक्षितके मनमें एक प्रश्न उठ खड़ा हुआ, जिसका समाधान श्रीशुकदेवजी महाराजने श्रीमद्भागवतके 'सप्तमस्कन्ध में किया है। राजा परीक्षित श्रीशुकदेवजी महाराजसे प्रश्न करते हैं

समः प्रियः सुहृद् ब्रह्मन् भूतानां भगवान् स्वयम्। इन्द्रस्यार्थे कथं दैत्यानवधीद्विषमो यथा ॥(भागवत ७.१.१)

महाराज, एक बात बताइये कि जब ईश्वर सम हैं, ईश्वर सबके लिए आनन्ददाता हैं, ईश्वर सबके हितकारी हैं और किसी निमित्तसे नहीं हैं, स्वयं हैं अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंके लिए सम हैं, प्रिय हैं, सहद हैं, फिर वे इन्द्रके लिए दैत्योंको क्यों मारते हैं?

यह तो जिसके हृदयमें विषमता भरी होती है, राग-द्वेष भरा होता है, वह ऐसा करता है। भगवान्के हृदयमें तो राग-द्वेष है नहीं, फिर वे ऐसा क्यों करते हैं? देवताओंका पक्ष लेकर दैत्योंको क्यों मारते हैं?

अब देखो,थोड़ा-सा वेदान्ती लोग ध्यान दें। भगवान्में तीन गुण बताये-समता, प्रियता और सुहृदता। यह समता कहाँसे आती है? ज्ञानीसे पूछो कि तुम कौन हो? तो बोलेगा-'सर्वाधिष्ठान अद्वितीयब्रह्म' । अब, जो लोग तुम्हारे अद्वय ब्रह्म-स्वरूपको नहीं जानते, वे तुममें अध्यास करते हैं।

माने तुमको रागी समझते हैं, तुमको द्वेषी समझते हैं। अध्यस्त चाहे कुछ भी हो, रज्जुमें चाहे कोई भी कल्पनाकी जाये साँपकी, मालाकी, दण्डकी वह जो ज्यों-का-त्यों सम है। कारण, किसी भी अध्यस्त वस्तुके साथ अधिष्ठानका कोई सम्बन्ध नहीं होता। दूसरे लोग हमारे स्वरूपमें चाहे जो भी कल्पना करें, हमारा स्वरूप उन कल्पनाओंसे अछूता ही रहता है, अस्पृष्ट ही रहता है।

यह अधिष्ठान-स्वरूपगत जो समता है वह ईश्वरमें भी प्रकट होती है। क्योंकि वही अधिष्ठान सद्वस्तु जो है वह मायामें प्रतिबिम्बित होती है। तो, मायाकी उपाधि होने पर भी और मायाकी उपाधिसे उपहित होने पर भी ईश्वर सम रहता है!

अब दूसरी बात देखो कि वह प्रिय है! तो भाई मेरे, ब्रह्म आनन्दस्वरूप है कि नहीं? बोले कि अपने आत्माके रूपमें परम प्रेमास्पद है। यहाँ तक कि माया-देशमें उसकी जो परछाँई पड़ती है, वह भी प्रियताको, आनन्दको उँडेलती रहती है।

यह सच्चिदानन्दकी,घनब्रह्मकी परछाँईका नाम ईश्वर है, ऐसा बोलते हैं आभासवादी, प्रतिबिम्बवादी और माया उपाधिसे अवच्छिन्न सच्चिदानन्द ही साक्षात् ब्रह्म है, यह बोलते हैं अवच्छेदवादी और माया-छाया कल्पित है, परब्रह्मके सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं, यह बोलते हैं ब्रह्मवादी। अब आप देखो, वही आनन्द मायामें प्रतिबिम्बित हुआ तो ईश्वर आनन्द रूप है।
भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण
स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन
सबके लिए प्रिय-ही-प्रिय है संबको वह रस देता है, स्वाद देता है! विषके कीड़ेको वह विषमें भी मजा दे देता है, मांस खानेवालेको वह मांसमें भी आनन्द दे देता है, सोने वालोंको सोने में भी आनन्द दे देता है और काम करनेवालोंको काममें भी आनन्द देता है । तात्पर्य यह है कि वह सबको आनन्द देता है और सबका प्रिय है! तीसरी बात है कि वह सुहृद है-सर्वदा सबका हित करता है। सम है विषम नहीं है, प्रिय है अप्रिय नहीं है और सुहृद है; दुहृद नहीं है।

इसीसे देखो, जिसको हम ज्ञानी पुरुष कहते हैं उसकी चर्चा छोड़ दो, जीवमें भी यदि ये गुण आ जाय वह सबके साथ समता बरते, सबको प्यार करे और सबका भला चाहे तो ज्ञान स्वरूप भगवान् जो है वह सबके हृदयमें सुष्ठ-ज्ञान देनेके लिए बैठा हुआ है-यह हित है, यह हित है, यह हित है। तो, अधिष्ठान-स्वरूपका प्रतिबिम्बिन है सम, चित्-स्वरूपका प्रतिबिम्बन है सुहृद और आनन्द-स्वरूपका प्रतिबिम्बन है प्रिय।

यह जैसे ब्रह्म-चैतन्यमें है, वैसे ही ईश्वर-चैतन्यमें है और आत्म-चैतन्यमें भी ठीक-ठीक वैसा ही है । पर, कभी यदि अज्ञान-वश अपने में विषमताका आरोप हो जाय और हम अपनेको किसीका शत्रु-मित्र मान लें, तो, उस समय हम ब्रह्म-चैतन्यसे, ईश्वर-चैतन्यसे, आत्म-चैतन्यसे विमुख हो जाते हैं।

तो स्वयंका अर्थ है-निर्निमित्त भूतानां भगवान् स्वयं भूत-प्रेत भेंट चढ़ानेसे खुश होते हैं, नौकर-चाकर इनाम देनेसे खुश होते हैं, साहब-मिनिस्टर रिश्वत मिलनेसे खुश होते हैं और भगवान् कैसे खुश होते हैं? बोले-स्वयं समः स्वयं प्रियः स्वयं सुहृद । देखो, महात्मा एक दृष्टिसे ईश्वरसे बड़ा होता है।

इसका यह मतलब नहीं कि हम ईश्वरसें बड़े हैं, या ईश्वर हैं परन्तु महात्माकी जो आत्मा है और महात्माकी जो बुद्धि है, दोनोंके बीचमें ईश्वरका निवास है। महात्मा पहले ईश्वरको देखता है, फिर बुद्धिको और फिर संसार देखने में आता है।
धियो यो नः प्रचोदयात् । 
बुद्धिका प्रेरक है परमेश्वर और दृष्टा साक्षी अद्वितीय ब्रह्म है महात्मा । तो, ब्रह्म-चेतनाकी अपेक्षा ईश्वर-चेतना दूसरे नम्बर पर आती है और बुद्धिमें आरूढ़-चेतना जो है वह तीसरे नम्बर पर आती है। हाँ तो महात्माकी स्थिति कहाँ है? हमारे वृन्दावन में एक महात्मा थे, वे बहुत बढ़िया छप्पय बोला करते थे, हमको पूरा याद नहीं है
झण्डा गाड़ो जाय के हद-बेहद के पार ।
हद-बेहद के पार दूर जहाँ अनहद बाजे॥ 
हमारा झण्डा वहाँ गड़ना चाहिए? कहाँ? कि हद्-बेहद्के पार ‘हद' माने सीमा-संसारकी हद होती है और बेहद है असीम ईश्वर और इन दोनोंके परे ‘आत्म-चैतन्य' महात्माका निवास है। तो नारायण, महात्मा भी अधिष्ठान स्वरूप ही है, प्रिय स्वरूप ही है, सुहृद स्वरूप ही है।

अब फिर से प्रश्न पर आ जाते हैं। प्रश्न यह है कि भगवान जो हैं ये भक्त का पक्षपात क्यों करते हैं? और, इसका उत्तर भी यही है कि भगवान् भक्तका पक्षपात करते हैं। क्यों करते हैं-यह बात आगे बतायी जाती है।

एक कथा आती है कि भगवान्ने वृत्तासुरके वधके लिए इन्द्रको अपनी शक्ति दे दी। माने इन्द्रके वज्रमें अपनी शक्ति भर दी और वृत्तासुरको मरवा दिया। दूसरी कथा आती है कि भगवान्ने देवताओंकी रक्षाके लिए दितिके गर्भ में प्रवेश करके उसके गर्भस्थ बालकके उन्चास टुकड़े कर दिये और अन्तमें उनको देवताओंका शत्रु न रहने देकर उनके पक्षमें कर दिया।

इन सब कथाओंको सुननेसे भगवान्के गुणोंके प्रति शङ्का होती है कि भगवान् सम नहीं हैं, विषम हैं, पक्षपाती हैं! इन्द्र के लिए ये विषम पुरुषकी तरह दैत्योंका वध करते हैं? क्या हो जाता है इनको जो किसीके साथ न्याय करते हैं और किसीके साथ अन्याय?

यह तो संसारी लोग पत्नीके लिए, पुत्रके लिए, अपने परिवारके लिए दूसरोंकी पत्नी, पुत्र, परिवारको कष्ट पहुंचाते हैं। भगवान्को तो ऐसा नहीं करना चाहिए। भगवानका तो काम नहीं है यह। नहीं हो तुम भगवान्! जब एक पक्षकी स्थितिके लिए दूसरे पक्षको कष्ट पहुँचाते हो। _

वैषम्य और नैर्घण्य। किसीके प्रति पक्षपात और किसीके प्रति निर्दयता । देखो, ये दो दोष ब्रह्ममें तो होते नहीं और महात्मामें कदाचित् छायाकी तरह आ भी जायँ तो फिर स्वप्रवत् मिट जाते हैं! लेकिन, ईश्वरमें तो दोनों दोष रहते हैं! तो बोले कि जब ब्रह्ममें ये दोष नहीं होते, एक महात्मामें नहीं होते, तब ईश्वरमें भी ये नहीं होने चाहिए।

कहो कि भाई, इन्द्रादि देवता भगवान्की बड़ी पूजा करते हैं, बड़ी भेंट चढ़ाते हैं। जो उनकी पूजा-पत्री लेकर भगवान् उनका पक्ष लेते हैं। बोले-नहीं ऐसा नहीं है, ये तो साक्षान्निः श्रेयसात्मनः हैं। ये तो मुक्त-स्वरूप हैं। निःश्रेयस इनका स्वरूप है।

इनको देवताओंसे कुछ लेना नहीं है और दैत्योंसे इनकी कोई हानि नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे, रज्जुमें कल्पित सर्प रज्जुको विषैली नहीं बना सकता और रज्जुमें कल्पित माला रज्जुकी शोभा नहीं बढ़ा सकती। तो ये साक्षात् ब्रह्मस्वरूप हैं, निःश्रेयस स्वरूप हैं। इनको देवताओंसे क्या लेना-देना कि उनका पक्षपात लेकर दैत्योंको मारते हैं?

राजा परीक्षित बोले कि

'नारायण गुणान् प्रति संशयः' 
यह सब होते हुए भी नारायणके गुणोंके प्रति हमारे मन में बड़ा संशय है, बड़ी शङ्का है कि भगवान् आखिर ऐसा क्यों करते हैं? जब सृष्टिमें उनको किसीसे कोई प्रयोजन नहीं है, अपने आपमें वे परिपूर्ण हैं तब वे ऐसा
क्यों करते हैं?

उनको क्या किसीसे लेना, क्या किसीको देना, क्या किसीसे हानि, क्या किसीसे लाभ? तो फिर वे किसीको मारते क्यों हैं और किसीका पक्षपात क्यों करते हैं।
न ह्यस्यार्थः सुरगणैः साक्षान्निःश्रेयसात्मनः। 
नैवासुरेभ्यो विद्वेषो नोद्वेगश्चागुणस्य हि॥
 इति नः सुमहाभाग नारायणगुणान् प्रति। 
संशयः सुमहाआतस्तद्भवांश्छेत्तुमर्हति॥
भा. ७.१.२-३ 
अब देखें बिना सत्के कोई वस्तु नहीं होती। लोग बोलते हैंघड़ा है, कपड़ा है, मकान है, स्त्री है, पुरुष है। बिना सत्ताके कोई वस्तु नहीं होती। यहाँ तक कि नहीं भी बोलते हैं तो बोलते हैं-नहीं है। सत्ता सबमें स्थित है, इसके बिना किसी भी वस्तुकी स्थिति हो ही नहीं सकती। सत्ता माने होना । सबमें है, है, है भरा हुआ है। आप हैं ना, क्या शंका है? दूसरी बात है 'प्रियः' ।

आप सबको आनन्द देनेवाले हैं सबके प्यारे हैं। विषके कीड़ेके लिए विष प्यारा होता है, कुतिया के लिए कुत्ता प्यारा होता है। संसारमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसमें किसी-नकिसीके लिए आनन्द न हो। जब मरनेकी बहुत इच्छा होती है तब आदमीको जहर खानेमें छुटकारा मालूम पड़ता है, मुक्ति मालूम पड़ती है।

ऐसी कोई वस्तु, ऐसी कोई क्रिया नहीं है, ऐसा कोई भाव नहीं है जो किसी-न-किसीके लिए प्रिय न हो । तो, यह 'प्रियता' कहाँसे आयी? हर वस्तु ‘प्यारी' कैसे बनी और हर वस्तु 'है' कैसे बनी? उसमें सत्स्वरूप, चित्-स्वरूप, और आनन्द-स्वरूप भगवान् पहलेसे ही भरपूर हैं।

जैसे घड़ा बननेके पहले भी मिट्टी है और घड़ा बनने पर भी मिट्टी है, वैसे ही यह सृष्टि भी बननेसे पहले भी सत-चित् आनन्द-स्वरूप रहती है और सृष्टि बननेके बाद भी सत्-चित् आनन्द-स्वरूप है! तो ब्रह्म जब माया लेकरके रहता है तब इसका नाम ईश्वर होता है।

और जब मायाको भी कल्पित, मिथ्यारूपमें अनुभव कर लेता है। महात्मा, तब परब्रह्म परमात्मामें और महात्मामें कोई भेद नहीं रहता है; महात्मा भी ब्रह्म-रूपमें ही रहता है। अब देखो, ब्रह्मको तो किसीसे राग-द्वेष है नहीं और महात्माको भी किसीसे राग-द्वेष नहीं है और ईश्वर?

 ईश्वरमें राग-द्वेष कैसे होगा? कि जब ईश्वरमें राग-द्वेष नहीं है तब वह दैत्योंको मारता क्यों है और देवताओंका पक्षपात क्यों करता है? यह है प्रश्नकी रूप-रेखा। असलमें देवता और दैत्य दोनों मायाके बच्चे हैं। तो भगवान्के ही बच्चे हुए, क्योंकि माया स्वतंत्र रूपसे तो कोई बच्चा पैदा करती नहीं और उनको जो मारना और जिलाना है वह भी मायाका ही बच्चा है माने मायासे है।

जैसे कोई नाटकका मैनेजर एक पात्रको राम बनाकर नाटकमें प्रस्तुत करता है और एक पात्रको रावण बनाकर । तो दोनों पात्र अभिनय करनेके लिए रङ्ग-मञ्च पर आये, एक-दूसरेसे लड़ते हैं और रावण मारा जाता है और राम बना पात्र जीत जाता है। तो, यह सब क्या है? कौन मरा, कौन जीया?

ऐसे ही मायाके द्वारा परब्रह्म परमात्माका, ईश्वरका रङ्ग-मंच पर यह एक अभिनय-मात्र है; वस्तुतः न कोई मरता है, न कोई जीता है। महात्मा लोग तो इस बातको जानते हैं, संसारी लोग इस बातको नहीं जानते । परन्तु विचार तो वहाँ बैठकर किया जाता है, जहाँ हम हैं और जहाँसे हमको दिखता है।
भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण
स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन
तो बोले ठीक है भाई, देवताओंके लिए दैत्योंको मारना एक नाटक है। लेकिन, नाटक भी सोद्देश्य कि निरुद्देश्य है? यह नाटक आखिर किया क्यों जाता है? फिर बोले-देवता लोग कोई भेंट-पूजा देते होंगे और दैत्य लोग कुछ छीन लेते होंगे, जिसके कारण ईश्वर देवताओंका पक्ष लेता है और दैत्योंके प्रति निर्दयता करता है? नारायण! ईश्वरमें यह पक्षपात आया कैसे? यह प्रश्न है।
न ह्यस्यार्थः सुरगणैः साक्षान्निःश्रेयसात्मनः ।
नैवासुरेभ्यो विद्वेषो नोद्वेगश्चागुणस्य हि ॥
 भा. ७.१.२ 
एक महात्मा कहा करते थे कि इस संसारमें हर आदमीके अन्दर दो कमजोरी होती है और उन कमजोरियोंको पकड़ करके ही लोग उसको नचाते हैं। पहली कमजोरी हैं भय, माने किसीसे वह डरता है और उसको डरसे बचानेके लिए बोलेंगे कि हम तेरी रक्षा करें और फिर अपनी इच्छानुसार चलाते हैं और दूसरी कमजोरी है-लोभ, हमको अमुक चीज चाहिए। इसके लिए बोलेंगे हम तुमको यह चीज देंगे, पर जैसा हम कहते हैं वैसा तुम करो और वह फिर वैसा करता है।

तो यदि संसारमें भय और लोभ नहीं होता तो सृष्टि पर किसी अनुशासन नहीं होता। ईश्वर भी उसी अन्तःकरणको नचाता है जिसमें भय और लोभ होता है।

ईश्वर आत्माको नहीं पकड़ता है, क्योंकि ईश्वरकी आत्मा और जीवकी आत्मा तो एक है, उसको ईश्वर भी कैसे पकड़ेगा? लेकिन, जब आत्मा अन्तःकरणके साथ तादात्म्यापन्न होकरके रहता है और अन्तःकरणमें भी भय और लोभ रहता है तब ईश्वर उसके अन्तःकरणको पकड़ करके नचाता है।

यदि जीव अन्तःकरणको छोड़कर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाय तो आत्माके रूपमें वह ईश्वरका नियम्य नहीं रहता है, ईश्वर-स्वरूप हो जाता है और फिर वह बोल सकता है कि तुममें और मुझमें कोई भेद नहीं है। लेकिन, जब तक जीव अन्तःकरणको पकड़े हुए है, तब तक ईश्वर मायाको पकड़ करके दुनियासे सारा काम लेता है; ईश्वर मायाको पकड़ करके नियन्ता होता है और जीव अविद्यामूलक अन्तःकरणको पकड़कर नियम्य हो जाता है। ईश्वर नचाता है और जीव नाचता है:
जग पेखन तुम देखन हारे। 
विधि हरि सम्भु नचावन हारे ।
ब्रह्माको ब्रह्मा बनाया, विष्णुको विष्णु बनाया, शिवको शिव बनाया-सबको इसने बनाया और फिर सबको नचाने लग गया।
विधि हरि सम्भु नचावन हारे। 
इस तरह यह सम्पूर्ण-विश्व नाच रहा है, माया नाच रही है। समग्र जीव नाच रहा है। __अब यह देखो कि इन सबको नचानेका काम ईश्वर कैसे करता है!
नट मर्कट इव सबहीं नचावत
राम खगेश वेद अस गावत॥ 
वेद यह गाते हैं कि जैसे एक मदारी अपने बन्दरको नचाता है, ऐसे ही भगवान सब जीवोंको नचाता है।
उमा दारु जोषित की नाईं।
सबहीं नचावत राम गोसाईं। 
जैसे कठपुतलीको कोई नचा रहा हो, वैसे ही परमात्मा सम्पूर्ण विश्वको नचा रहा है। वह सूत्रात्मा है। उसके हाथमें सूत है और एक पर्दा है। सूतका नाम ब्रह्मा-विष्णु-महेश है और पर्देका नाम माया है और नचाये जाने वाले जीव सब कठपुतलीके समान हैं।

तो, वह क्या करता है कि पर्देके पीछे छिपकर, सूत खींचता है और सूत खींच-खींच कर जीवोंको नचाता रहता है। जड़को भी वही नचाता है और चेतनको भी वही नचाता है।

पर प्रश्न तो ज्यों-का-त्यों रह गया कि उसने एकको कूबड़ी बना दिया, एकको कंस बना दिया और एक रूपमें कृष्ण होकरके आयाआखिर, यह सब अभिनय क्यों? जिसको कूबड़ी बनाया उसको कूबड़ी क्यों बनाया? जिसको कंस बनाया, रावण बनाया उसको कंस-रावण क्यों बनाया?

जिसको महात्मा बनाया उसको महात्मा क्यों बनाया? एकको राजा क्यों बनाया, एकको रङ्क क्यों बनाया? एकको दुःखी क्यों बनाया; एकको सुखी क्यों बनाया? एकका पक्ष लेकर लड़नेके लिए आ गया और एकका पक्ष छोड दिया, उसको मरने दिया-आखिर ईश्वर ऐसा क्यों करता है? ___

  श्रीमद्भागवतमें एक प्रसङ्ग है, आपने जरूर पढ़ा तो होगा, पर उसके अर्थ पर ध्यान दिया हो कि न दिया हो। समुद्र-मन्थन हुआ, अमृत लेकर धन्वन्तरि प्रगट हुए और भगवान्ने स्वयं मोहिनी देवीका रूप धारण करके दैत्योंको ठगा और देवताओंको अमृत पिलाया ।

तो इसको देखकर तो यही लगता है कि देवताओंने भगवान्को कुछ दिया होगा और दैत्योंने उनका कुछ बिगाड़ किया होगा? परन्तु, इसके बाद जो कथा है वह बड़ी अद्भुत है। जब अमृत पी लेनेके बाद देवता और दैत्य आपसमें लड़ने लगे तब अमृत पीये .हुए देवता भी मरें और अमृत न पीये हुए दैत्य भी मरें। मरे दोनों! अद्भुत हो गया अमृत पीने पर भी देवता अमर नहीं हुए, कटाकट मरने लगे।

अब, जब देवता लोग हारने लगे तब उन्होंने फिर भगवान्से प्रार्थना की कि हे प्रभु, इतना परिश्रम करके आपने मन्दराचल उठाया, उसको अपनी पीठ पर धारण किया, ऊपरसे दबाये रखा, देवता और दैत्य दोनोंके साथ मिलकर आपने समुद्र मन्थन किया और फिर आप स्वयं धन्वन्तरि बनकर अमृतका कलश लेकर प्रकट हुए और मोहिनी रूप धारण करके हमारे पक्षमें छलकपटसे आपने हमें अमृत पिलाया।

आपके इतना सब करने पर भी अब वह अमृत काम क्यों नही कर रहा है, देवता लोग मर क्यों रहे हैं? आप हमारी रक्षा कीजिये, हमें बचाइये। इस पर भगवान्ने अमृतसे पूछा-क्यों रे अमृत, तू सच्चा अमृत है और मैंने देवताओंको पिलाया है तो इस देवासुर संग्राममें तू देवताओंकी रक्षा क्यों नहीं करता है, देवता लोग क्यों मर रहे हैं?

अमृत बोला-महाराज, आपने कपट रूप धारण करके देवताओंका पक्षपात करके और दैत्योंके साथ अन्याय करके देवताओंको अमृत पिलाया है। तो अन्यायसे देवताओंको अमृत प्राप्त हुआ है, मैं उनका पक्ष नहीं लूँगा, उनको नहीं जिलाऊँगा।

भगवान्ने कहा कि अच्छा, अब तुम यदि इनको नहीं जिलाते हो तो मैं आता हूँ फिर जैसे तुमको प्रगट करनेके लिए आया धन्यवन्तरिके रूपमें, तुमको बाँटनेके लिये आया मोहिनीके रूपमें, जैसे एक रूप धारण करके उनको सलाह दी जैसे कच्छप रूप धारण करके मन्दराचलको अपनी पीठ पर रखा और एक रूप धारण करके उसको ऊपरसे दबाये रखा, वैसे ही अब एक रूप धारण करके देवताओंकी ओरसे मैं लडूंगा, इनकी रक्षा करूँगा, इनको मरने नहीं दूंगा! अमृत बोला-अच्छा महाराज, आप देवताओंके प्रति इतने दयालु हैं?
भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण
स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन
इनका पक्ष लेकर आप लड़ेंगे? तो, अब मैं भी अपना काम करूँगा, अब देवता लोग मरेंगे नहीं। तो जिस पक्षमें भगवान् हैं उसी पक्षमें अमृत है।

अमृतका अपना कोई पक्ष नहीं है! तात्पर्य यह कि चाहे कोई कितना भी धन खर्चे, चाहे कितना भी जोर लगावे, चाहे कितनी भी बुद्धि लगावे, परन्तु सुख-शान्ति तो उसीको मिलेगी जिसके पक्षमें भगवान् होंगे। तो भगवान् पक्ष क्यों लेते हैं?

हमको एक प्रसङ्ग याद है-हमारी माताजी वैष्णव हो गयीं थीं। हमारे पिताजी तो जब तक जीवित रहे शंकरजीकी पूजा करते थे और पितामह पाँचों देवताओंकी पूजा करते थे और माताजी हो गयीं रामानुज-सम्प्रदायकी श्रीवैष्णव! शङ्ख चक्र लग गया उनके हाथमें ।

उनके गुरुजी वृन्दावन में ही रहते थे और कभी-कभी हम उनके पास जाया करते! एक बार उनके सामने यही प्रश्न उठा कि आखिर भगवान् पक्षपात क्यों करते हैं? इसके उत्तरमें उन्होंने जो हमें समझाया वह मैं आपको सुनाता हूँ आनुकूल्य प्रातिकूल्याभ्याम् व्यवस्था। भगवान्के जो अनुकूल होता है और भगवान्के जो प्रतिकूल होता है, उसके अनुसार उसके प्रति उनके व्यवहारमें भेद होता है।

जैसे-देखो, यदि तुम पूर्वकी ओर मुँह कर लोगे तो तुम्हारी छाया पीछेके ओर हो जायेगी और और पूर्वकी ओर पीठ कर दोगे तो छाया आगेकी ओर हो जायेगी। तो प्रश्न यह नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो, प्रश्न यह है कि तुम देखते किधर हो, तुम्हारी दृष्टि किधर है! तो

'आनुकूल्य प्रातिकूल्याभ्याम् व्यवस्था' 

जो भगवान्के अनुकूल होकरके भजन करते हैं उनके प्रति भगवान्का सत्-चित्-आनन्द अनुभव स्वरूप साक्षात् होता है और जो लोग भगवान्की ओर पीठ करके रखते हैं उनके ऊपर भी सत्-चित् आनन्दकी वर्षा तो होती है, लेकिन भगवान्की ओर पीठ कर देनेके कारण उनको उसका अनुभव नहीं होता है! तब फिर भगवान् ही ऐसा करते हैं? कि नहीं।
'संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः' भागवत, 
७.९.२७ । 
एक कल्पवृक्ष है, सबके लिए उसका दरवाजा खुला है। जो भी उसके नीचे आवे-देवता आवे, दैत्य आवे, संत आवे, संसारी आवे उसका मनोरथ पूरा हो जाय! तो, देवता तो कल्पवृक्षके नीचे जाते हैं, उससे माँगते हैं और उनका मनोरथ पूरा हो जाता है; परन्तु दैत्य लोग उसको उखाड़ कर फेंक देना चाहते हैं, नष्ट कर देना चाहते हैं।

कि तब? क्या यह प्रश्न होगा कि कल्पवृक्ष विषमता करता है। देवताओंका पक्षपात करता है और दैत्योंके साथ क्रूरता करता है? नन, ऐसा बिल्कुल नहीं है।

जो कल्पवृक्षके नीचे जायेगा, उसकी सेवा करेगा उसको कल्पवृक्ष सब कुछ देगा, उसके सारे मनोरथ पूर्ण करेगा और जो कल्पवृक्षके नीचे नहीं जावेगा उसका मनोरथ पूर्ण नहीं होगा।। इसको एक दूसरे दृष्टान्तसे और समझिये,ठण्डके दिन हैं; आग जल रही है। एकको ठण्ड लगी, वह जाकर आगके पास बैठ गया और हाथ-पाँव सेंकने लगा, उसकी ठण्ड मिट गयी।

और, एक दूसरा व्यक्ति आगसे डर कर दूर चला गया, उसकी ठण्ड नहीं मिटी। अब इसमें आगका क्या दोष? दोष तो उस आदमीका है जो डरकर आगसे दूर चला गया और आगसे उसने ताप नहीं लिया । जंगलमें कभी रहते हैं तो आग जलाकर बैठते हैं।

क्योंकि आग जलती रहेगी तो न भालू आवेगा, न शेर आवेगा, न साँप आवेगा और न भूत-पिशाच आवेगा। कैसे? आगको जलाकर उसके पास बैठे हुए हैं। ___ तो, यह जो परमात्मा आपके हृदयमें विराज रहे हैं आप इसकी रोशनीको प्रकट कर लीजिए, इसमें जो ज्ञान-शक्ति है उसको प्रकट कर लीजिए, उसमें जो आनन्द-शक्ति है उसको प्रकट कर लीजिए। उसका दरवाजा हमेशा खुला रहता है, किसीके लिए बन्द नहीं होता। बन्द तो लोगोंने अपनी आँख कर रखी है। इसीसे ब्रह्मसूत्रमें यह प्रसङ्ग है
वैषम्यनैघृण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति। 
२.१.१२.३४
परमात्मामें किसीका पक्षपात नहीं है, वह किसीके प्रति निर्दय नहीं है। तब क्या है? उसको अपेक्षा है । वह आपसे कुछ चाहता है। यह सोद्देश्य है । उसको यह प्रकट करना है कि जो भगवान्का भजन करता है उसको क्या नहीं मिलता है?

उसको कैसा ज्ञान मिलता है, कैसा जीवन मिलता है और उसके जीवन में कैसी सुख-शान्ति रहती है। और, जो भगवान्का भजन नहीं करता है उसके जीवन में कैसा अज्ञान रहता है, कैसा दुःख रहता है, कैसी अशान्ति रहती है। यह जिनके पास बहुत चीजें हैं वे शान्त नहीं है, वे सुखी नहीं हैं, वे तो बड़े उद्विग्न हैं। तो भगवान्के भक्त और अभक्तका भेद देखें--
तदपि करहिं सम-विषम विहारा।
भक्त-अभक्त हृदय अनुसारा॥
आप अपने हृदयको भगवान्के सामने कीजिए और भगवान्का. सारा आनन्द अपने अन्दर ले लीजिए और आप भगवान्की ओरसे अपना मुँह घुमा लीजिये, तो आपके अन्दर संसारकी क्रूरता, संसारकी निर्दयता, संसारका पक्षपात आ जायगा।

गीता ९-२९ भगवान् कहते हैं कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों में 'सम' हूँ-समान प्रमा है सबके भीतर । 'स' माने समान और 'मा' माने 'प्रमा' । हमको सब एक समान दीखते हैं।

'समोऽहं सर्वभूतेषु' सब हमारे बेटे हैं। न मे द्वेष्योस्ति न प्रियः' मेरा कोई द्वेष्य नहीं और मेरा कोई प्रिय नहीं है, हम किसीसे दुश्मनी नहीं करते और किसीसे प्यार नहीं करते । तब फिर?
'ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्' 
जो भक्तिसे, प्रेमसे मेरी सेवा करते हैं मैं उनमें हूँ और वे मुझमें हैं। । इसीसे श्रीरामानुज-सम्प्रदायमें यह बात मानी जाती है कि भगवान् सर्वेश्वर हैं, सम हैं, अचिन्त्य कल्याण गुणगण-निलय हैं। सारे सद्गुण उनके अन्दर हैं और वे सबके प्रति परम दयालु, परम कृपालु हैं।

 परन्तु रक्षापेक्षाम पेक्षते'\ वे कहते हैं कि भाई, दुनिया में हम किसकी रक्षा करने जायँ और किसी रक्षा करने न जायँ? हमारे तो सब हैं। हम रक्षा करें तो सबकी करें-कीट पतङ्गकी भी करें, खटमल-मच्छरकी भी करें, क्योंकि सब हेमारे स्वरूप हैं, सबको अपना सत् देते हैं, चित् देते हैं, आनन्द देते हैं, सब हम हैं और रक्षा न करें तो किसीकी न करें। तब रक्षामें यह भेद क्यों आया?

इसका उत्तर दिया रक्षापेक्षाम पेक्षते। एक मर्यादा भगवान्ने बना दी कि जो उनकी ओर मुँह करके, उनके सामने हाथ जोड़करके प्रार्थना करता है कि हे प्रभु आओ हमको बचाओ, हमारे हृदयमें बस जाओ!
भक्त प्रहलाद का चरित्र चित्रण
स्वामी अखंडानंद सरस्वती प्रवचन
तो, प्रभु उसकी रक्षा करते हैं और उसके हृदयमें विराज कर उसको परमानन्द प्रदान करते हैं और जो कभी प्रार्थना नहीं करता वह इन सबसे वंचित रहता है। तो असलमें ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ भगवान् न हो, ऐसा कोई समय नहीं जब भगवान् न हों और ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसमें भगवान् न हों।

भगवान् तो सब जगह, सब समय, सबमें मौजूद रहते हैं और हर समय हमारी रक्षा करने के लिए तत्पर ।  लेकिन उनकी रक्षा ग्रहण करनेके लिए हमारे हृदयकी जैसी बनावट होनी चाहिए वैसी नहीं हो पाती है। यह हमारी आँखका दोष है, हमारे मनकी कमजोरी है, हमारी बुद्धिकी कमजोरी है कि हमको भगवान्का दर्शन नहीं होता।

 वे तो महाराज अभी यहीं इसी रूपमें हमको दर्शन देनेके लिए तैयार हैं और हमारी रक्षा करनेके लिए तो ऐसे तैयार रहते हैं कि हर समय चक्रको अपने हाथमें ही रखते हैं कि यदि हमारे भक्तका विरोध करने वाला कहीं दूर होगा तो उसे दूरसे ही चक्र फेंक कर मारेंगे, हमारे भक्तका विरोधी नजदीक होगा तो उसे गदासे मारेंगे, हमारे भक्तकी विजय होगी तो हम विजय शङ्ख बजावेंगे और हृदयमें से हृदय निकालकर देने में तो देर लगेगी, इसलिए पहलेसे ही मुट्ठीमें अपना हृदय-कमल निकाल कर रखते हैं कि जब हमारे भक्तको जरूरत होगी तब कमलके रूपमें अपना हृदय उसको दे दें। हर समय खड़े रहते हैं।

अनादिकालसे अब तक बड़े आतुर-कातर-चित्तसे भक्तकी प्रतीक्षा करते रहते हैं-कोई हमसे कहने वाला तो हो! नारायण! कोई हमको चाहने वाला तो हो! हमने तो इसको दिया अपना प्यार और वह प्यार यह हमको नहीं देकर किसी दूसरेको दे रहा है; हमने दिया इसको ज्ञान, उससे यह हमको नहीं जानता है दूसरेको जानता है, हमने दिया इसको जीवन और वह जीवन यह हमारे लिए नहीं लगाता है दूसरेके लिए लगाता है।

भगवान् चुपचाप खड़े-खड़े देखते रहते हैं। लेकिन, जब कभी किसी भक्तका हृदय द्रवित होकरके भगवान्के सामने जाता है तब वह देखता है कि उस द्रवित हृदयमें पहलेसे साक्षात् भगवान् बैठे हुए हैं। तो बाबा, भगवान्को किसीसे पक्षपात नहीं है।
न ह्यस्यार्थः सुरगणैः साक्षान्निःश्रेयसात्मनः । 
का ये तो मुक्त-स्वरूप हैं, इनको किसीसे किसी वस्तुकी चाह नहीं है। दैत्योंसे इनको द्वेष नहीं है, देवताओंसे कुछ लेना-देना नहीं है। ये स्वयं निर्गुण-प्रभु हैं, इनको उद्वेग नहीं है । तब फिर इनके पक्षपातका कारण क्या है? आओ, इस शङ्का पर विचार करें।
इति नः सुमहाभाग नारायणगुणान् प्रति।
संशयः सुमहाआतस्तद्भवांश्छेत्तुमर्हति ॥ ७.१.३ 
आओ, नारायणके गुणोंका चिन्तन करें। उनके गुण भक्त हितकारी हैं। वे तो तुम्हारे बड़े पक्षपाती हैं। तुम्हारे लिये शंङ्ख-चक्र-गदापद्म लिये-लिये हर समय तैयार रहते हैं। उनके धनुषकी ताँत कभी उतरती नहीं, उनका बाण कभी विश्राम नहीं करता, उनका चक्र कभी नींद नहीं लेता-हमेशा अपने भक्तोंकी रक्षाके लिए तैयार रहता है। तो, भक्तकी महिमा दिखानेके लिए, भक्तिकी महिमा दिखानेके लिए भगवान् ऐसी लीला करते हैं।
ॐ शान्तिः शान्तिः!! शान्तिः।
प्रह्लाद-चरित
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