bhagwat katha hindi,भागवत कथा हिंदी

bhagwat katha hindi
भागवत कथा हिंदी 
[ भाग-8 ,part-8 ]
भीमापवर्जितं पिण्डमादत्ते गृहपालवत्। 
धिक्कार है ऐसी जीवन की आशा को। ये भी भला कोई जीवन है? धृतराष्ट्र बोले, विदुर ! तो कहाँ जाऊँ। क्या करूँ? विदुरजी बोले, चलो मेरे साथ! और रातों-रात धृतराष्ट्र व गांधारीजी को लेकर विदुरजी बाहर निकल गये।

नियमानुसार प्रात:काल जब पाण्डवों ने जागते ही ताऊजी को दंडवत करने के लिए भवन में प्रवेश किया, तो ताऊजी का कोई पता नहीं चला। संजय से पूछा तो संजय ने भी मना कर दिया, मुझे भी नहीं मालूम। बहत ढूँढने पर दूर-दूर तक कोई पता नहीं चला, तो श्रीयुधिष्ठिरजी महाराज दुःखी हो गये।

न जाने ! हम लोगों से क्या अपराध बन गया? कौन-सी बात हमारे ताऊजी को बुरी लगी, जो हमें चुपचाप बिना बताये ही भाग गये? उसी समय देवर्षि नारद तुम्बुरु गन्धर्व के साथ प्रकट हुये और धर्मराज को समझाया कि राजन् ! आप दुःखी न होइये! अब तुम्हारे ताऊजी को विदुर जैसे-महापुरुष का सान्निध्य मिल गया है।

अब उनका निश्चिन्त कल्याण हो जायेगा, उनकी ओर से आप निश्चिन्त हो जाइये। तब पाण्डवों को शान्ति मिली।
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भागवत कथा हिंदी 
समय बीतता गया धीरे-धीरे अपशकुन बहत बढ़ने लगा। भगवान द्वारिकाधीश द्वारिका गये, अर्जन को साथ में ले गये। आज पूरे सात महीने बीत गये पर अर्जुन नहीं आया, धर्मराज को शंकायें होने लगीं। भीमसेन से बोले, भैया भीम! आज पूरे सात महीने बीत गये, न जाने क्या बात है? न अर्जुन आया, न उसका संदेश?

बड़े-बड़े भयंकर अपशकुन मुझे बड़े भारी अनिष्ट का संकेत दे रहे हैं। मंदिरों में दर्शन करने जाता हूँ तो देवप्रतिमायें रोती हुई-सी नजर आती हैं, पुच्छल तारा का उदय होने लगा है, गाय को बछिया का दूध पीते देखा – ये बड़ा भारी अनिष्ट का संकेत है।

गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः । 
नायाति कस्य वा हेतो हं वेदेदमञ्जसा ॥
(भा. 1/14/7) 
सात महीने तक अर्जुन अभी तक लौटकर क्यों नहीं आया? नहीं आना था तो संदेश क्यों नहीं भेजा? चर्चा हो ही रही थी कि अचानक अर्जुन सामने से आ गये। अर्जुन को देखते ही पाण्डव दौड़ पड़े, अरे अर्जुन! कैसे हो? सबको महान् आश्चर्य होने लगा। क्योंकि अर्जुन का मुख एकदम कान्तिहीन हो चुका था, आँखों से अश्रुपात हो रहा था।

 अरे! लगता है कि कोई बहुत बड़ा अनिष्ट हो गया, अर्जुन जल्दी बताओ! हुआ क्या? तुम्हारी कान्ति नष्ट क्यों है? कहीं तुमसे कोई बहुत बड़ा पाप तो नहीं हो गया? गौवध तो नहीं हो गया? विप्रवध तो नहीं हो गया? वृद्ध और बालक की उपस्थिति में उन्हें खिलाये बिना चुपचाप उनके सामने अकेले भोजन तो नहीं किया?

अगम्या स्त्री से गमन तो नहीं हुआ? शरणागत की रक्षा करने में कहीं असमर्थ तो नहीं हुए? तुम्हारी प्रतिज्ञा भंग तो नहीं हो गई? क्या बात है! तुम्हारा मुख आज कान्तिहीन क्यों है? ओ हो! द्वारिका में इतने दिन रहकर आये हो, द्वारिका में सब कुशल से तो हैं?

हमारे प्यारे प्रभु अपने परिकर साथ प्रसन्न हैं? साम्ब, प्रद्युम्न, आदि सभी यदुवंशी आनन्दपूर्वक तो हैं? जब एक-एक से सबकी कुशलता के प्रश्न करने प्रारम्भ किये, तो अर्जुन महाराज युधिष्ठिर के चरणों में तुरन्त गिर पड़े।
वंचितोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरूपिणा। 
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत् ॥
(भा. 1/15/5) 
भैया ! हम अपने प्यारे प्रभु के सान्निध्य से वंचित हो गये। एक-एक प्रसंगों का अर्जुन स्मरण करन@लगे, जिन प्रभु की कृपा से मैंने खांडव वन का दहन किया, युद्ध में भोलेनाथ को भी संतुष्ट किया, जिन्होंने दुर्वासा मुनि के उग्रशाप से अक्षयपात्र का एक दल पाकर, विश्वात्माओं को तृप्त करके हमारे प्राणों की रक्षा की, स्वयंवर में जिनकी कृपा से मैंने द्रौपदी का वरण किया; आज उन्ही प्रभु के परमधाम जाने के बाद मैं अर्जुन वही, मेरे बाण वही, पर मेरे प्रभु मेरे साथ नहीं तो महाभारत का विजेता अर्जुन आज भीलों से भी युद्ध में पराजित हो गया। आज मुझे समझ में आया कि मेरा बल-पराक्रम जो भी कुछ था, वह प्रभु का ही था। मैं तो केवल एक निमित्त था।

यदुवंश के संहार का जब पूरा प्रसंग अर्जुन ने विस्तारपूर्वक सुनाया तो, कुन्ती मैया ने जब ये सुना कि गोविन्द भी लीला संवरण करके परमधाम गये, तो तुरन्त गोविन्द के चरणों का चिंतन करते हुए, ध्यानस्थ होकर एक क्षण में कुन्ती मैया ने अपना शरीर त्याग दिया।

ऐसे प्रेमी या तो रामावतार में श्रीदशरथजी हुये या कृष्णावतार में भगवती कुन्ती, जिन्हें प्रभु के वियोग को क्षणभर भी सहा नहीं। पाण्डव भी तुरन्त द्रौपदीजी को साथ लेकर, परीक्षित को सत्ता का भार सौंपकर स्वर्गारोहण करते, हिमालय यात्रा करते-करते, अन्त में परमधाम को प्राप्त हुये। 
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भागवत कथा हिंदी 
महाराज परीक्षित ने अपनी सत्ता को सँभाला। एक बार विचार आया कि चलकर प्रजा की व्यवस्था का निरीक्षण करें। अपने बुजुर्ग-अनुभवी मंत्रियों को साथ में लेकर महाराज परीक्षित निकल पड़े। भ्रमण करते-करते सर्वत्र अपने पूर्वजों की प्रशंसा सुनने को मिली। परन्तु एक जगह पर बड़ा अटपटा दृश्य देखा कि एक गाय-बछड़े आंसू बहाते, रोते जा रहे हैं और एक निर्दयी दुष्ट उनके पीछे पड़ा हुआ है।

दोनों अपने सुख-दु:ख की बातें एक-दूसरे को सुना रहे हैं। बछड़ा कहता है, माँ! शायद आप इसलिये रो रही हैं कि मेरे तीन पैर टूट गये अथवा इसलिये रो रहीं हैं कि प्रभु हमें छोड़कर चले गये। इन दोनों के संवाद को परीक्षित ने सुना।

 क्रोध में नेत्र से अंगारे बरसाने लगे, मुझ परीक्षित के राज्य में गौमाता पर इतना बड़ा अत्याचार हो रहा है? अरे ! जिन गायों की रक्षा के लिये मेरे प्रभु गोपाल बनकर वन-वन विचरण किये, उनके परमधाम जाते ही मेरी गायों पर इतना अत्याचार?

प्रभु का नाम ही जिन गायों के द्वारा गोविन्द और गोपाल पड़ा, उन्हीं की गायों पर अत्याचार होने लगा? हाथ में तलवार लिये महाराज परीक्षित छोड़ पड़े, हे गौमाता ! अब आपको रोने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु परमधाम गये तो क्या हुआ, अभी परीक्षित जीवित है।

मा रोदीरम्ब भद्रं ते खलानां मयि शास्तरि। 

क्रुद्ध हुए महाराज परीक्षित जैसे-ही आगे बढ़े, उस दुष्ट को दण्ड देना चाहते थे कि वह 'दीनवत् शरणम् गतः' मुकुट उतारकर चरणों में गिर गया, 'त्राहिमाम् त्राहिमाम्' महाराज रक्षा करें। शरणागत की रक्षा करना क्षात्रधर्म है, ये जानकर महाराज परीक्षित ने खड्ग को म्यान में कर लिया और कहा, हे गौमाता!

आप कौन हैं? मैं जान गया। आप साधारण गाय-बछड़े तो हो नहीं, आपके संवाद को सुनकर ही मैं समझ गया। हे वषभ! आप कौन हैं? क्योंकि आपके तो तीन पैर टूटे हुए हैं। तुम्हारी ये दुर्दशा किसने की? मुझे बताओ! नि:संकोच निर्भीक होकर बताओ! बछड़ा बोल पड़ा, महाराज !

मैं अपने दुःख का हेतु किसे मानूं? कुछ लोग कहते हैं कि भाई ! जैसा कर्म करोगे, वैसा फल मिलेगा। कर्म ही सुख-दुःख का कारण है। कुछ लोग कहते हैं, भाई ! ईश्वर की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, भगवदिच्छा से ही सब कुछ होता है। कुछ लोग कहते हैं, भाई ! ग्रहों की गति है।

अनुकूल ग्रह आ जायें तो बड़ा आनन्द आता है, प्रतिकूल पड़ जायें तो बड़े-बड़े महापुरुषों को भी का उठाना पड़ता है। इसलिये भाई! मेरी समझ में नहीं आता और मुझे नहीं लगता कि मैं अपने दुःख का किसी दोष दूं। अत: मैं अपनी इस दुर्दशा का दोषी किसी को नहीं मानता।

महाराज परीक्षित् बोले, बस मैं पहचान गया! आप साक्षात् धर्म हैं। क्योंकि पापी को तो पाप का फल मिलता ही है। लेकिन पापी के पाप की चर्चा करने वाला भी पाप का भागीदार हो जाता है। और इसीलिये आपने किसी के दोष की चर्चा अपने मुख से नहीं की।

आप साक्षात् धर्म हैं और ये गौमाता साक्षात धरणी (पृथ्वी) हैं, जिनका भार उतारने के लिये प्रभु आये थे। पर अब लीला-संवरण करके परमधाम चले गये इसलिये उनके वियोग में दु:खी हैं। पर ये धूर्त कौन है जो तुम दोनों के पीछे पड़ा है? ये समझ में नहीं आया। क्यों भाई! तेरा परिचय? चरणों में गिरकर बोला, सरकार !

मैं कलियुग हूँ। परीक्षित बोले, अच्छा-अच्छा! तो तू कलियुग है? मेरे राज्य की सीमा में प्रवेश करने का दुःसाहस कैसे हुआ तुझे? कलियुग बोला, सरकार ! ये बताइये कहाँ आपका राज्य नहीं है? इस सप्तद्वीप-वसुंधरा पर एकछत्र आपका ही साम्राज्य है, जाऊँ तो कहाँ? सब जगह आप धनुष-बाण लिये दिखाई पड़ते हैं। शरण में आ गया हूँ महाराज! जो स्थान बता देंगे, वहीं रह जाऊँगा।

महाराज परीक्षित बोले, अच्छा ये बताओ! तुम्हारे अन्दर गुण कितने हैं और दोष कितने हैं? कलियुग बोला, महाराज! दोषों का तो भण्डार हूँ। पर गुण सिर्फ एक है।
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना ।
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशव कीर्तनात् ॥ 
(पद्म.भा.मा. 1/68) 
कलियुग में इससे सरल साधन कोई सम्भव नहीं है, केवल हरिनाम संकीर्तनमात्र से जीव भवसागर को बड़ी सहजतापूर्वक पार कर सकता है। इस गुण पर महाराज परीक्षित प्रसन्न हो गये और बोले, भाई ! गुण तुम्हारा बड़ा अच्छा लगा, बड़ा ही दिव्य है। जीवों को इससे सरल साधन कोई मिल नहीं सकता।

अन्य युगों में तो कितनी तपस्या करनी पड़ती है, यज्ञ करने पड़ते हैं और भी बहुत सारे बड़े-बड़े साधन करने पड़ते हैं। कलियुग में तो बैठे-बैठे जीभ हिलाओ, प्रभु के नाम का आश्रय लेकर पार हो जाओ। रीझ गये महाराज परीक्षित, भाई! तब तो हम तुम्हें रहने का स्थान देंगे। जाओ! चार कमरे दिये।
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भागवत कथा हिंदी 
द्यूतं पानं स्त्रियः सूना यत्राधर्मश्चतुर्विधः। 
जहाँ जुआ खिले, जहाँ मदिरापान हो, जहाँ पर लम्पट पुरुष रहते हों और जहाँ जीव-जन्तुओं की हिंसा होती हो। कलियुग गिड़गिड़ाता हुआ बोला, महाराज! परिवार बहुत बड़ा है चार कमरों में गुजारा नहीं हो पायेगा और फिर आपने जैसी शकल देखी वैसे ही कमरे दे दिये हमें।

अरे ! कम-से-कम एक गुण मेरा आपको बहुत पसंद आया, तो क्या एक बढ़िया-सा कमरा नहीं मिलेगा? बढ़िया-सा एक कमरा मिल जाये बस! अच्छा ! तो बोलो। कौन-सा स्थान और चाहते हो? कलियुग बोले, महाराज ! केवल स्वर्ण में निवास और मिल जाता, तो अपना काम चल जाता।

पुनश्च याचमानाय जातरूपमदात्प्रभुः। 
स्वर्ण में निवास मांगा। महाराज परीक्षित चूंकि प्रसन्न थे, गुण पर रीझे हुये थे, इसलिये तुरन्त कह दिया, अच्छा जाओ! हमने तुम्हें स्वर्ण में भी निवास दिया। अब एक शंका होती है कि एक ओर प्रथमस्कन्ध मे तो 
सूतजी महाराज कह रहे हैं कि महाराज परीक्षित ने कलियुग को स्वर्ण में निवास दे दिया। पर दूसरी ओर, भागवत के एकादश स्कन्ध में विभूति योग का वर्णन करते हुए उद्धव से भगवान् स्वयं कहते हैं,
'धातूनामस्मि काञ्चनम्' 
(भागवत 11/16/18) 
हे उद्धव! धातुओं में स्वर्ण मेरा ही स्वरूप है, उसमें मेरा निवास है। अब लो! भागवत में ही लिखा है कि स्वर्ण में कलियुग का निवास है और भागवत में ही भगवान् कह रहे हैं कि मेरा निवास है? तो अब किसका निवास मानें? इसका समाधान यह है कि ईमानदारी से प्राप्त किये हुए स्वर्ण में भगवान् का निवास है।

कुछ लोगों ने कहा, सरकार ! ईमानदारी से तो कम ही लोग हैं, जो सोना पहन पाते हैं। कृपया, कुछ और संशोधन कीजिये। तो गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने रामचरितमानस में एक संकेत दे दिया, संसार की कोई वस्तु है ही नहीं, जिसमें दोष न हों -
जड़ चेतन गुण दोषमय बिस्व कीन्ह करतार। 
भोजन करते हैं, तो अन्न में दोष, वस्त्र पहनते हैं तो वस्त्र में दोष – हर वस्तु सदोष है। परन्तु जो वस्तु भगवान् को निवेदित कर दी जाये, वह निर्दोष हो जाती है। अन्न में दोष है। पर ठाकुरजी का भोग लग जाये, तो वह प्रसाद बन जाता है। फिर अन्न नहीं रह जाता, भगवत्प्रसादी हो जाता है।

उसका सारा दोष दूर हो जाता है। इसलिये जो भी वस्तु संसार की ग्रहण करो, उसे भगवान् को समर्पित करके ग्रहण करो। भोजन करना है, तो भोग लगाकर वस्त्र पहनना हैं, तो ठाकुरजी को पहनाकर ऐसे ही अलंकार पहनना हैं।

होगा स्वर्ण में दोष! पर पहले ठाकुरजी को पहना दो और ठाकुरजी का प्रसाद बनाकर आप धारण कर लो। ऐसा करने पर उसमें फिर साक्षात् प्रभु का ही वास होगा। अतः भगवान् का प्रसाद बनाकर ही वस्तु को ग्रहण करना चाहिए।

तुमहि निवेदित भोजन करहीं। 
प्रभु प्रसाद पट भूषण धरहीं ॥ 
एक दिन महाराज परीक्षित स्वर्णमण्डित मुकुट धारण करके शिकार खेलने के लिये निकल पड़े। दिग्भ्रमित हो गये। भूख-प्यास से पीड़ित होकर महर्षि शमीक की कुटिया में पहुंच गये। बाहर खड़े होकर खूब आवाज दी, पर कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। कुटिया के भीतर महाराज परीक्षित ने जाकर देखा, तो शमीक मुनि समाधिस्थ बैठे हुये थे।

 राजा को भ्रम हो गया, 'मृषा समाधिराहोस्वित्' इसकी ये झूठी समाधि है। ये मेरा शब्द सुन रहा है, पर आँख बंद करके इसलिये बैठ गया है ताकि राजा के चक्कर में कौन पड़े। अपने आप चिल्लाकर चला जायेगा। अरे! राजा ईश्वर का अंश होता है।

देखता हूँ, असली है कि नकली ! एक मरा हुआ सर्प दिखाई पड़ा, तो धनुषकोटि से उठाकर महात्मा के गले में लपेट दिया। पर महात्मा भी असली और उनकी समाधि भी असली। उनपर कोई भी अन्तर नहीं पड़ा।

महाराज परीक्षित तो चले गये। संत को समझने में भूल हो जाये, तो परिणाम बहुत भयानक होता है। कहीं असली को नकली समझ बैठे, तो खतरा-ही-खतरा और कहीं नकली को असली समझ बैठे, तो भी बहुत खतरा। रामचरितमानस में प्रतापभानु की कथा आपने सुनी होगी।

 एक पाखण्डी महात्मा के चक्कर में पड़कर राजा प्रतापभानु का सर्वनाश हो गया। एक पाखण्डी पर विश्वास करके इतना भयंकर परिणाम हुआ। और भागवत में एक असली संत को नकली समझ बैठने की गलती कर बैठे परीक्षित, मरा सर्प डाल दिया और  चले गये।

 ये दृश्य एक बालक ने देखा और शमीक ऋषि के पुत्र को सूचित किया, जो कौशिकी नदी के तट पर खेल रहा था। जहाँ यह पूरा समाचार सुना कि वह ऋषिकुमार क्रोध में भर गया। वह बालक तुरन्त जल में प्रविष्ट हो गया और नदी के जल को हाथ में लेकर परीक्षित को श्राप दे दिया। 
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