देवर्षि नारद का प्रचेताओं को उपदेश,Devarshi Narada's teachings to the angels

Devarshi Narada's teachings to the angels
देवर्षि नारद का प्रचेताओं को उपदेश,Devarshi Narada's teachings to the angels
तज्जन्म तानि कर्माणि तदायुस्तन्मनो वचः । 
नृणां येनेह विश्वात्मा सेव्यते हरिरीश्वरः ।।
नारद जी कहते हैं प्रचेताओं इस संसार में मनुष्य का वही जन्म, कर्म आयु, मन और वाणी सफल है, सार्थक है जिसके द्वारा विश्व श्री हरि का भजन किया जाय, ध्यान किया जाय, चिन्तन किया जाय ।
किं वा योगेन सांख्येन न्यासस्वाध्याययोरपि । 
किं वा श्रेयोभिरन्यैश्च न यत्रात्मप्रदो हरिः ।।
जिनके द्वारा अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाले श्री हरि को प्राप्त न किया जाय ऐसे योग, सांख्य, संन्यास, वेदाध्ययन और व्रत वैराग्यादि साधनों से मनुष्य को क्या लाभ है ।
श्रेयसामपि सर्वेषामात्माह्यवधिरर्थतः । 
सर्वेषामपिभूतानां हरिरात्मात्मदः प्रियः ।।
संसार में जितने लाभ माने जाते हैं उनमें आत्म लाभ सबसे बड़ा लाभ है, और आत्म ज्ञान प्रदान करने वाले श्री हरि ही सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा हैं । जीवन्मुक्त पुरूष आत्मलाभ को ही सबसे बड़ा लाभ मानते हैं ।
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः । 
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणा तथैव सर्वाहणमच्युतेज्या ।
जिस प्रकार वृक्ष की जड़ मे जल देने से उसके तने शार उपशाखा, पत्र, पुष्प सब हरे भरे बने रहते हैं और जिस पर द्वारा प्राणों को तृप्त कर देने से समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट रदर्ज अपना-अपना काम करती है, उसी प्रकार भगवान् की पूजा से की पूजा हो जाती है । महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ मे इन्द्रिादि देवता गन्धर्व बड़े बड़े राजा उपस्थित थे। उस समय महाराज युधिष्ठिर पूजन की सामीक्षा  न कर सके  । उस समय हाथ में पूजन की थाल  लेकर ये सोच रहे थे कि सबसे पहले पूजन किसका करना चाहिए परन्तु इस बात का निर्णय उनकी  बुद्धि न कर सकी । उस समय सहदेव  ने उठकर महाराज युधिष्ठिर से कहा .
तस्मात्कृष्णाय महते दीयता परमार्हणम् । 
एवं चेत्सर्वभूतानामात्मनश्चाहण भवेत् ।।
राजन! प्रथम पूजन भगवान् श्रीकृष्ण का होना चाहिए । वही अग्र  पूजा के अधिकारी हैं । इनकी पूजा करने से समस्त प्राणियों की और अपनी भी पूजा हो जायेगी क्योंकि ये विश्वात्मा है, विश्व के कारण हैं। इस बात का सभी सभासदों ने अनुमोदन किया और इस प्रकार सबसे प्रथम पूजन भगवान् श्रीकृष्ण का किया गया ।
यथैवसूर्यात्प्रभवन्ति वार: पुनश्चतस्मिन्प्रविशन्ति काले । 
भूतानि भूमौ स्थिरजङ्गमानि तथा हरावेवगुण प्रवाहः ।। 
जिस प्रकार वर्षाकाल में जल सूर्य के ताप से उत्पन्न होता है और काल में उसकी किरणों में पुनः प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर प्राणी पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन हो जाते - उसी प्रकार जड़ चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत् श्री हरि से उत्पन्न होता और उसमें ही लीन हो जाता है ।
तैनैक मात्मानमशेषदेहिनां कालं प्रधानं पुरूषं परेशम् । 
स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहमात्मैकभावेन मजध्वमद्धा ।।
इसलिए प्रचेताओं! ब्रह्मादि देवताओं के भी आराधनीय श्री हरि को अपने से अभिन्न मानते हुए उनकी आरधना करो क्योंकि वे समस्त देहधारियो आत्मा हैं, वही जगत् के निमित्त और उपादान कारण हैं, वह सबक नियन्ता पुरूषोत्तम हैं ।
न भजति कुमनीषिणा स इज्या हरिरधनात्मधन प्रियोरसज्ञः । 
श्रुतधनकुलकर्मणा मदेर्ये विदधति पापमकिंचनेषु सत्सु ।।
भगवान् को सर्वस्व मानने वाले निर्धन पुरूषों से ही भगवान् प्रेम करते  हैं क्योंकि वे परमरसज्ञ हैं । अकिंचन भक्तों की अहेतुकी भक्ति में कितना माध्य होता है भगवान् उसे अच्छी तरह जानते हैं । जो लोग धन,
और प्रतिष्ठा के मद से उन्मत्त होकर साधुजनों का तिरस्कार करते हैं उन दुर्बुद्धियों की पूजा भगवान् स्वीकार नहीं करते । नारद जी ने भगवान् को प्रसन्न करने के ये तीन साधन बताए हैं
दयया सर्वभूतेषु संतुष्टया येन केन वा । 
सर्वेन्द्रियोपशान्त्या च तुष्यत्याशु जनार्दनः ।।
जो प्राणिमात्र पर दया करता है प्रारब्धानुसार भगवान् ने जो परिस्थितियाँ दी है उनमें संतुष्ट रहता है, और इन्द्रिय और मन को अपने वश में रखता है । इन तीन साधनों से भगवान् शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं । नारद जी ने ध्रुव को संसार सागर से पार होने का उपाय बताया
यस्य यद् दैवविहितं स तेन सुख दुःखयो ।
आत्मानं तोषयन् देही तमसः पार मृच्छति ।।
नारद जी ने कहा वत्स धुव प्रारब्धानुसार प्राप्त सुख दुःख में, अनुकूलता प्रतिकूलता में जो अपने को सम रखता है वह संसार सागर  से पार हो जाता है । दोनों में समान कैसे रहें ? 
सुखे सति पुण्य क्षीयते दुःखे सति पापं क्षीयते। 
सुख की परिस्थिति में पुण्य नष्ट हो जाते हैं और दुःख की परिस्थिति में पाप नष्ट हो जाते हैं ये विचार करके दोनों परिस्थितियों में समान भाव से रहे । ब्रह्मा जी ने भी भगवत्प्राप्ति के ये तीन साधन बताए हैं - तन्तेऽनुकम्पा सुसमीक्षमाणो भुज्जान एवात्मकृतं विपाकम्। 
हृदवागपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवत यो मुक्ति पदे स दायभाक् ।।
भगवान् की कृपा जो भलि प्रकार अनुभव करता है और मीराबाई सूरदास आदि महापुरूषों पर जैसी कृपा हुई थी वैसी कृपा मेरे ऊपर कब होगी इसकी जो प्रतीक्षा करता है, प्रारब्धानुसार भगवान के हर प्रदत्त सुख अथवा दुःख में सतुष्ट रहता है - हृदय से भगवान का ध्यान वाणी से भगवान् का गुणगान, एव शरीर से भगवान् की सेवा करता वह इसी जीवन में अभीष वस्तु प्रदान करने में पूर्ण समर्थ तथा मुक्ति का अधिकारी बन जाता है ।
पिता यथा स्वपुत्रं दुग्धं निम्ब रसं च कृपयैव पाययति आश्लिष्य। 
चुम्बति पाणितलेन प्रहरति च तथा मम हिताहितं मत्प्रभुरेव न त्वहम् ।।
जैसे पिता कभी पुत्र को मिश्री डालकर दूध पिलाता है कभी कड़वा नीम का रस पिलाता है कभी हृदय से लगाकर बच्चे को चूमता है , कभी उसको चपेत भी लगाता है, इन सभी परिस्थितियों में बच्चे का हित ही होता है । इसी प्रकार भक्त को सोचना चाहिए कि भगवान् ने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति दी है उसमें हमारा हित ही है ऐसा निश्चय रखें। पृथु जी भगवान् से कहते हैं -
यथा चरेत् बालहितं पिता स्वयं तथा त्वमेवार्हसि नः समीहितम।।
प्रभो जैसे पिता पुत्र के हित के लिए ही सोचता है उसी प्रकार मेरा जिसमे हित हो आप वही करें । भगवान् ही हमारे एकमात्र सच्चे भी हैं । वे अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थिति प्रदान करके हमारा हित ही करते हैं । इस प्रकार की भावना करने वाला व्यक्ति ही संसार सागर से विरक्त  हो जाता है।

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