प्रह्लाद-चरित,prahlad charitra,part-2

प्रह्लाद-चरित
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प्रसंग यह चल रहा है कि भगवान् देवताओंका पक्षपात क्यों करते हैं और दैत्योंको क्यों मारते हैं? देवताओंसे क्या राग है और दैत्योंसे क्या द्वेष है? भगवान् तो स्वयं निर्गुण हैं, अजन्मा हैं, सबमें सम हैं, सबके प्रिय हैं, सबके सुहृद हैं; फिर भगवान्का ऐसा व्यवहार क्यों? तो भगवान्के गुणोंपर एक शङ्का हो गयी।

उसका समाधान यहाँ करते हैं ।

 बहुत सीधी बात है कि शुद्ध-वस्तु जो काम करती है वह काम और उसके साथ यदि कोई उपाधि जुड़ जाये तब वह क्या काम करती है-दोनों में फर्क होता है। जैसे-हम सूर्य को देखते हैं, तो सूर्य हमको कोई हाथभर लम्बा-चौड़ा दिखायी पड़ता है और इसी सूर्यको जब विज्ञानकी दृष्टिसे देखते हैं तब पृथिवीसे कई लाख गुणा सूर्यका आकार है। तब फिर हमें सूर्य छोटा क्यों दीखता है?

इसलिए दीखता है कि हमारी आँख और सूर्यके बीचमें दूरीकी उपाधि है। पर क्या सूर्य छोटा हो गया? नहीं, सूर्य छोटा नहीं हुआ है, हमारे देखनेका औजार जो है वह छोटा है। और देखो, आकाशमें जब बादल आ जाता है तब सूर्यकी रोशनी कम दिखने लगती है।

ग्रहण जब लगता है तब सूर्य ढंकने लगता है और जब बादलोंमें पानी होता है तब आकाशमें पीला रङ्ग, लाल रङ्ग, नीला रङ्ग-इन्द्रधनुष दिखायी देने लगता है। तो क्या सूर्य इन्द्रधनुषको रगने आता है? क्या ग्रहण उसमें कोई बिगाड़ कर देता है? क्या बादल आनेसे सूर्यकी रोशनी कम हो जाती है? नहीं, यह सब बीचमें उपाधिके आ जानेसे होता है। असलमें सूर्य ज्यों-का-त्यों रहता है।

तो 'उपाधि' जो है वह 'उपहित'को अपने रङ्गमें रँगती नहीं है, वह हमारी आँखोंको ही ढंक देती है। 'उप' माने पास और 'आधि' माने आधान जो पास रहकर अपने गुण-धर्मका दूसरेमें आधान कर दे वह 'उपाधि' एकका गुण दूसरेमें चला जाय ।

सफेद स्फटिक बहुत स्वच्छ होता है, लेकिन जब उसको लाल कागज पर रख देते हैं तब वह लाल दिखने लगता है। इससे क्या स्फटिक लाल हो गया? नहीं, स्फटिक लाल नहीं हुआ, उसके पास जो कागज रखा हुआ है उसकी लाली उसमें दिख रही है।

अब ईश्वरको हम देखना तो चाहते हैं, पर कहाँ बैठकर? इस शरीरमें बैठकर । ईश्वर इतना महान् और हम इस शरीरमें बैठकर छोटी-सी बुद्धिसे उसको नाप लेना चाहते हैं; उसकी उम्र जान लेना चाहते हैं कि क्या तौल है ईश्वरका? भाई मेरे, जब बहुत बड़ी वस्तुको जाँचना होता है तब उसके लिए छोटा औजार काममें नहीं आता है और फिर हमारे इस औजारकी तो शक्ति ही बहुत कम है।

इतने शक्ति-हीन उपकरणसे, इतने शक्ति-हीन औजारसे ईश्वरको कैसे तौला जायेगा? । तो, देखो, वस्तु होती है एक, पर उसमें देशका प्रभाव, कालका प्रभाव अलग दिखायी पड़ता है। अभी थोड़े महीनों पहलेकी बात है।

अखबारों में छपा था कि साइबेरियामें दो हजार वर्ष पुराने कुछ जौके दाने मिले जो वहाँ अङ्कुरित नहीं हुए और यहाँ आने पर और अनुकूलठण्डी-गर्मी मिलने पर उनमें अङ्कुर निकल आया।

यह हुआ देशका और स्थानका प्रभाव! तो, किसीभी वस्तुको देखनेके पहले यह भी देखना पड़ता है कि हम किन-किन वस्तुओंसे प्रभावति होकर उसको देख रहे हैं। हमारी जन्मभूमिमें खेती होती है, तो मेड़के बीचमें गाड़ देते हैं आलू और नीचे होता है गेहूँ और उसपर डाल देते हैं लाल मिर्च के बीज ।

देखें आप, एक ही खेत, एक ही माटी, एक ही खाद और एक ही सिंचाई। उसीमें-से आलू निकलता है उसका स्वाद दूसरा, लाल मिर्च निकलती है उसका स्वाद दूसरा, गेहूँ निकलता है वह बिल्कुल अलग ।

 क्यों भाई, ऐसा कैसे हुआ-धरती एक है, मिट्टी एक है, खाद एक है, सिंचाई एक है? ऐसा यों हुआ कि सबके बीज अलग-अलग हैं-आलूका बीज अलग है, मिर्चका बीज अलग है, गेहूँका बीज अलग है और बीजकी उपाधिसे एक ही माटी अलग-अलग गुण देती है, एक ही पानी अलग-अलग गुण देता है, एक ही हवा अलग-अलग गुण देती है,

एक ही आकाश अलग-अलग गुण देता है! 

इसी तरह कालकी उपाधि होती है और देशकी उपाधि होती है और उपाधिके अनुसार सब वस्तुएँ अपना अलग-अलग काम करती हैं।- तो, हम लोग जब ईश्वरको देखने लगते हैं तब कहाँ बैठकर देखते हैं? हम अपनी ही दृष्टिसे ईश्वरको तौलने लगते हैं।

देखो, जब हम देह बनकर जाँचेगे तब ईश्वर निकलेगा 'विराट्' और जब मन-बुद्धि बनकरके जाँचेंगे तब ईश्वर निकलेगा-'हिरण्यगर्भ' और जब हम शान्त-समाधिस्थ होकर ईश्वरको जाँचेंगे तब ईश्वर निकलेगा 'शान्त' और जब हम अभिन्न होकर ईश्वरको देखेंगे तब ईश्वर निकलेगा'अद्वितीय'।
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 अब व्यवहारमें ईश्वर कहाँ क्या कर रहा है, कैसे कर रहा हैइसको समझनेके लिए -ईश्वर कर रहा है कि नहीं यह बात दूसरी है, वह कर्ता है कि अकर्त्ता है यह बात दूसरी है, हम जहाँ बैठकर देखते हैं वहाँसे हमारे और ईश्वरके बीच में क्या-क्या उपाधि हैं यह देखना पड़ेगा ।

जैसे खेतमें धान पड़े रहते हैं छः महीने तक धरतीमें और जब वर्षा होती है तब उनमें अङ्कुर उग जाता है। तो, कालकी उपाधि होती है, देशकी उपाधि होती है, बीजकी उपाधि होती है और उनसे वस्तुएँ अपना-अपना काम अलग-अलग करती हैं। अब देखो कि ईश्वर कैसे काम करता है।

तो बोले कि कभी सत्वकी उपाधिसे काम करता है, कभी रजस्की उपाधिसे काम करत. है और कभी तमसकी उपाधिसे काम करता है। ईश्वर एक ही है।

स्वमायागुणमाविष्य बाध्यबाधकतां गतः। ७.१.६

श्रीशुकदेवजी महाराज वर्णन करते हैं कि जब हम सोचने लगते हैं कि ईश्वरके व्यवहारमें और ईश्वरके रूपमें इतना अलगाव कैसे है, सोचते-सोचते हार जाते हैं और कोई कारण हमें नहीं मिलता है। तो भाई, यह सब जादूका खेल है। जादूका खेल ऐसा ही होता है।

एकबार जादूगरने हमारे हाथमें जादूका एक रुपया दिया और कहा कि इसका नम्बर देख लो! देख लिया । मुट्ठी बाँध ली। बोला-'खोलो' । खोली तो मुट्ठीमें रुपया नहीं। बोला-'तुमने चुरा लिया' । 'नहीं बाबा, हमने नहीं चुराया' । बोला-'चुराया है। अच्छा, जूता उतारो!' जूता खोला तो रुपया वहाँसे निकला ।

अब बताओ, वह रुपया हमारे हाथसे लेकर तो जूतेमें डाला नहीं गया, गिरकर गया नहीं, हमने डाला नहीं। फिर यह कैसे वहाँ पहुँचा? इसीको बोलते हैं-जादूका खेल । इसीका नाम है माया! तो जब हम सोचने लगते हैं कि ईश्वरने सृष्टि कैसे बनायी, तो इसके लिए सबके अलग-अलग मत हैं |

चार्वाकका कहना है कि सृष्टि चार भूतोंसे अपने आप बनती है; जैनों और वैशेषिकोंका कहना है कि पुद्गलोंसे, परमाणुओंसे सृष्टि बनी है, मीमांसकोंका कहना है कि कर्मसे सृष्टि बनी है; बौद्धोंका कहना है कि वासनासे सृष्टि बनी है; बल्लभाचार्यजी कहते हैं कि ईश्वरके सङ्कल्पसे सृष्टि बनी है; सांख्ययोगवाले कहते हैं कि प्रकृतिसे सृष्टि बनी है; शैव कहते हैं कि अपना आत्मा ही सृष्टिके रूपमें दिख रहा है।

तो, जब हम सोचने लगते हैं कि यह सृष्टि कैसे बनी, तब हम वहाँसे नहीं सोच सकते जहाँसे यह सृष्टि है, बल्कि वहाँसे सोचते हैं जहाँ हम बैठे हैं। तो, क्या हमारी नन्हींसी बुद्धि इस सृष्टिके अनन्त-मूलको पकड़ सकती है? - हमने कल एक बहुत बुद्धिमान सज्जनके सामने चर्चा की।

मैंने उनसे कहा कि यदि जड़ाद्वैत माना जाये कि जगत्के मूलमें जड़-सत्ता है और उसमें सब होनेका सामर्थ्य है-वही बुद्धि बनती है, वही इन्द्रियाँ बनती हैं और वही विश्व-सृष्टि भी बनती है-उसमें सर्व-भवन सामर्थ्य है। और, कहो कि नहीं चेतन है, तो हम कहते हैं कि तुम्हारा चेतन तो निष्क्रिय है, तो निष्क्रियमें और जड़ाद्वैत-सत्तामें क्या फर्क है? बात टेढ़ी हो जायेगी ।

 बड़े मजेदार हैं भाई। बोले कि जड़ाद्वैत-सत्ता जो होगी वह यहाँ बैठकरके कल्पित होगी। हम कल्पना करेंगे कि सृष्टिके प्रारम्भमें ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा होगा और यदि चेतनाद्वैत-सत्ता होगी तो अनुभव-रूप होगी, अपनी आत्मा होगी।
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जड़ाद्वैत-सत्ता यदि मूलमें होगी तो वह अनुभवके क्षेत्रमें नहीं होगी, कल्पित होगी और यदि चेतन-सत्ता होगी तो अनुभवका विषय तो नहीं होगी। लेकिन, स्वयं अनुभव-स्वरूप अपना आत्मा होगी-मैं ही अद्वितीय ब्रह्म-स्वरूप हूँ! तो देखो, जब हम बनते हैं देह तो ईश्वर हो जाता है ‘जड़' और जब हम बनते हैं सङ्कल्पवाले मन तब ईश्वर हो जाता है 'सङ्कल्पवान्' जब हम बनते हैं समाधिस्थ तब ईश्वर हो जाता है 'शान्त' और जब हम बनते हैं अद्वैत-चेतन तब ईश्वर हो जाता है 'अद्वैत-चेतन' ।

हम पापीपुण्यात्मा कब होते हैं? जब कर्ता बनते हैं। हम सुखी-दुःखी कब होते हैं? जब भोक्ता बनते हैं। हम परिच्छिन्न कब बनते हैं? जब दृश्यके साथ तादात्म्यापन्न करते हैं। नारायण! हमारी जो परिस्थिति है वह तत्त्वके निर्णयमें सर्वोपरि अपना प्रभाव डालती है। इसलिए अपनी स्थितिको ठीक करना चाहिए।

 अब जब हम ईश्वरके बारेमें सोचते हैं कि ईश्वर देवताका पक्षपात क्यों करता है और दैत्योंको क्यों मारता है? तो बोले भाई, उपाधि स्वीकार करके हम बन गये मनुष्य और देवता-दैत्यके बारेमें इश्वरके व्यवहारके बारेमें सोच रहे हैं कि ईश्वर भी कुछ ओहदा धारण करके यह काम करता है।

 जैसे प्रधान-मन्त्री प्रधानमन्त्रीकी कुसीपर बैठकर हस्ताक्षर करता है; एक राष्ट्रपति राष्ट्रपतिका पद स्वीकार करके अपने कर्त्तव्यका पालन करता है, ऐसे ही ब्राह्मण जब ब्राह्मणत्वकी कुर्सीपर बैठता है तब अपना कर्त्तव्य पालन करता है; जब हिन्दू हिन्दुत्वकी कुर्सी पर बैठता है तब अपना कर्त्तव्य पालन करता है, जब मनुष्य मनुष्यत्वकी कुर्सी पर बैठता है तब अपने कर्त्तव्यका पालन करता है और जब जीव कर्ता-भोक्ता बन करके जीव-पदको स्वीकार करता है तब जीवके कर्त्तव्यका पालन करता है।

 यह देवता, दैत्य, मनुष्यका भेद कहाँसे आया? तो यह अपनी-अपनी उपाधिके कारण आया और उन-उन उपाधियोंमें प्रवेश करके ईश्वर उन-उन उपाधियोंके अनुरूप काम करता है! जब सत्वकी उपाधि होती है तब

ईश्वर सत्यको प्रकाशित करता है-


तब ज्ञान-ही-ज्ञान, प्रकाश-ही-प्रकाश होता है; जब रजसकी उपाधि होती है तब रजसको प्रकाशित करता है तब कर्म-ही-कर्म होता है और जब तमसकी उपाधि है तब तमसको प्रकाशित करता है-तब जड़ताही-जड़ता होती है ।

ईश्वर है बिच्छूमें, उसके डंकमें जहर भरता है, ईश्वर है साँपमें, उसकी दाढ़में जहरकी थैली बना देता है और ईश्वर जब गायमें आता है तब दूध देता है। 5. तो इस तरहसे समयकी उपाधिसे, स्थानकी उपाधिसे और बीजकी उपाधिसे ईश्वर जो काम करता है, वह अपने निरुपाधिक रूपमें नहीं सोपाधिक रूपमें काम करता है।

तो जब देवताओंको बढ़नेका समय होता है तब ईश्वर उनको अपनी शक्तिसे सींच देता है; जब दैत्योंका बढ़नेका समय होता है तब दैत्योंको अपनी शक्तिसे सींच देता है और जब मनुष्योंके बढ़नेका समय होता है तब मनुष्योंको अपनी शक्तिसे सींच देता है।

सब अपना-अपना बीज लेकर रहते हैं और ईश्वर कब किसको बढ़ाना चाहिए और कब किसको घटाना चाहिए-यह कालकी उपाधिसे, स्थानकी उपाधिसे और बीजकी उपाधिसे देखकर सबके साथ अलग-अलग बर्ताव करता है। असलमें, ईश्वरमें भेद नहीं है, उन-उन उपाधियोंमें भेद है।

बिच्छूमें और गायमें भेद है, पर उन दोनोंके अन्दर जो ईश्वरशक्ति है उसमें भेद नहीं है-वह दोनोंको बढ़ाती है। एक चोर सूर्यकी रोशनीमें चोरी करता है और योगी सूर्यकी रोशनी में समाधि लगाता है। अब उसमें सूर्य क्या करे? वह तो अपने प्रकाशको फैलाता है-'एतावत् मात्र' ही उसका काम है।

 अब इस बातको समझनेके लिए एक उपाख्यान यहाँ दिया हुआ है। उपाख्यान माने-वस्तुको समझनेके लिए एक आख्यायिका । उसको ऐतिहासिक-दृष्टिसे नहीं तौला जाता, उसको आध्यात्मिक-दृष्टि से देखा जाता है। क्या उपाख्यान है? श्रीशुकदेवजीने राजा परीक्षितकी प्रशंसा करते हुए कहा कि राजन्, प्रश्न बहुत बढ़िया है। क्योंकि इसमें भगवान्के अद्भुत, अनिर्वचनीय चरित्रका प्रकाश होगा।
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इसमें भगवान्की महिमा नहीं, भागवत-भक्तकी महिमाका वर्णन है। और, इसका फल क्या होता है? जीवनमें भगवान्की भक्ति बढ़ती है! जब हम अपने शीशेको बिलकुल निर्मल करके रखते हैं तब उसमें सूर्यकी रोशनी पड़ती है! यहाँ तक कि एक शीशा ऐसा भी होता है कि यदि उस पर सूर्यकी रोशनी पड़ रही हो और उसपर रुई रख दो तो रुईमें आग लग जायेगी-इतना शक्तिशाली शीशा और कोयले पर सूर्यकी रोशनीका कुछ असर ही नहीं होता!

तो जब हमारे हृदयमें भगवान्की भक्ति आती है तब उस भक्तिसे हमारा हृदय ऐसा चमाचम चमक जाता है कि उसमें ईश्वरकी रोशनी सीधी पड़ने लगती है। कहते हैं कि एक राजाके पास दो चित्रकार आये। बड़े शिल्पी, बड़े निपुण ।

राजाने दोनोंको कहा कि तुमलोग हमें भित्ती-चित्र बनाकर दिखाओ, जिसका चित्र बढ़िया होगा उसको पुरस्कार दिया जायेगा! अब एक चित्रकारने भीतको लीप-पोतकर स्वच्छ करके, पालिश करके उसके ऊपर चित्र बनाना प्रारम्भ किया और ठीक उसके सामने दूसरी तरफ जो दूसरा चित्रकार था उसने भीतको स्वच्छ करना, चमकाना शुरू किया।

स्वच्छ करे, चमकावे और पर्दा गिरा दे! कुछ दिनों बाद चित्र बनकर तैयार हो गया। उद्घाटनका समय हुआ, महाराज आये और पहले चित्रकारने अपना चित्र दिखलाया-मैंने यह बनाया। दूसरे चित्रकारसे जब कहा कि तुम अपना चित्र दिखाओ, तब उसने केवल पर्दा हटा दिया। पर्दा हटाते ही सामने वाला चित्र उसमें प्रतिबिम्बित होने लगा, दीखने लगा ।

अरे, ये दोनों तो बिलकुलं एकसरीखे हैं। चित्रकार बोला-नहीं महाराज, एक-सरीखे नहीं हैं-उस चित्रकी दाँयी-बाँह दिखती है, हमारे चित्रकी बाँयी-बाँह दिखती है; उसका मुँह पूरबकी ओर है, हमारे चित्रका मुँह पश्चिमकी ओर है; उसका दाहिना पाँव पश्चिमकी ओर है तो हमारा बाँया पाँव पश्चिमकी ओर है।

ये दो चित्र हैं, एक कैसे हैं? वह उसने बनाया, यह मैंने बनाया। बात क्या हुई कि उसने अपनी भीतको घिस-घिसकर, घिसघिस-कर बिलकुल शीशा बना दिया जिससे सामने वाला चित्र उसमें प्रतिबिम्बित होने लगा था।
इसी तरह यह भक्ति जो है वह हमारे हृदयको बिलकुल स्वच्छ, निर्मल बना देती है और उसमें ईश्वरकी तस्वीर ग्रहण करनेकी शक्ति ला देती है।

अच्छा तो अब यह देखना है कि भक्ति हृदयको निर्मल कैसे बनाती है। यही भक्तिकी अद्भुत महिमा है। भगवद्भक्ति वर्द्धनम्। भक्तिमें दो सामर्थ्य है। एक-भगवानके स्वरूपका ज्ञान और दूसरा-संसारके राग-द्वेष, ईर्ष्या-मद-मोहसे निवृत्ति। यह अन्तःकरणका स्वभाव है कि उसमें दो वृत्ति एक साथ नहीं रह सकती।

युगपत ज्ञानानुपत्तिर्मनसोलिङ्गम् । 

या तो ईश्वरका चिन्तन होगा या तो संसारका चिन्तन होगा। जिससे तुम्हारा राग होगा वह याद आवेगा या तो जिससे तुम्हारा द्वेष होगा वह याद आवेगा। एक दिन राधारानी बहुत दुःखी हो रही थीं, रो रही थीं। श्रीकृष्णने पूछा-प्रियाजी, आप इतनी दुःखी क्यों हैं? बोलीं-महाराज, जिस हृदयमें आप रहते हैं उस हृदयमें आज हमको अपनी सौतकी याद आगयी, उसकी शकल दीखने लगी।

आपके रहते, आपकी उपस्थितिमें हमारे हृदयमें सौतका प्रतिबिम्बन हो गया-आपसे मेरा प्रेम कहाँ है? आपके प्रति मेरा सच्चा प्रेम होता तो हमारे हृदयमें दूसरेकी याद आती ही क्यों? यह है भक्तिका स्वरूप। तो भक्ति एक ओरसे तो करती है हृदयको शुद्ध ।

धर्मानुष्ठान हृदयको शुद्ध करता है, भगवान्की भावना नहीं लाता, भगवान्के स्वरूपका ज्ञान नहीं कराता । ज्ञान केवल भगवान्के स्वरूपको दिखाता है, हृदयको शुद्ध नहीं करता । जबकि भक्तिकी यह महिमा है कि वह एक ओरसे तो करती है हृदयको शुद्ध और दूसरी ओरसे कराती है भगवान्के स्वरूपका ज्ञान ।

भक्तिमें जब हम भगवान्का ध्यान करते हैं तब भगवान्का स्वरूप हमारे हृदयमें आ जाता है और जब भगवान्से हमारा प्रेम हो जाता है तब संसारके राग-द्वेष-ईर्ष्या-मद-मोह सब मिट जाते हैं। इसलिए बाबा भक्तिकी बहुत महिमा है! भगवान् भी भक्तिके वशमें हो जाते हैं! और, कहो भाई कि असली भगवान् तो नहीं हुए, यह तो भगवान्की तस्वीर है!

तो इस बात पर सम्भवतः आप विश्वास न करें, पहले हमारे बचपनमें हमारे एक मित्र थे, वे शीशेके सामने बैठ जाते, मन्त्र-जप करते और शीशेमें अपना ध्यान करते कि हम शीशेमें प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, हम शीशेमें हैं और बोलते-ओ छाया-इसको छाया-पुरुष बोलते हैं-बोलते-ओ छाया, तू जरा हट जा, बाँए हट जा, दाहिने हट जा, उठ जा, जरा बाहर निकल जा।

 इस तरह उस छायापुरुषमें आत्माका आधान करके उसको आज्ञा देने लगते । कहते-जा कलकत्ता, वहाँसे ला रसगुल्ला; जा जयपुर, ले आ वहाँसे करेलेका आचार और वह छाया-पुरुष उनकी आज्ञाका पालन करने लगता। तो भगवान्को वशमें करनेकी एक ही रीति है! वह क्या है सत स्त्रियः सत् पतिं यथाः।

जैसे सती स्त्री अपने पतिको अपने वश में कर लेती है वैसे ही जब हमारे हृदयमें भजनीय भगवान्का ध्यान ठीक-ठीक होने लगता है और जब संसारका ध्यान छूट जाता है और केवल भगवान्-ही-भगवान् रह जाते हैं, तब; हमारे हृदयमें जैसे-जैसे संकल्प होते हैं, वैसे-वैसे बनकर भगवान् दिखायी पड़ने लगते हैं।

यह भक्तकी महिमा है, यह भक्तके हृदयमें रहनेवाली भक्तिकी महिमा है कि वह भगवानसे जो चाहे सो करा लेती है! प्रह्लाद जातिसे देवता नहीं थे, जन्मसे देवता नहीं थे, जन्मसे, जातिसे दैत्य थे। पर, जब उनके हृदयमें भगवान्की भक्ति आ गयी, तब भगवान्ने यह नहीं देखा कि यह दैत्य है, बल्कि उनकी रक्षा की।

तो असलमें भगवान्के आचरणमें, चरित्रमें जो अद्भुत बात देखने में आती है, वह भगवान्का पक्षपात नहीं है। बल्कि, भक्तके हृदयमें जो भक्ति है और उस भक्तिमें जो भगवान्का प्रतिबिम्बन है, वह हृद्देश-निवासी जो भगवान् हैं

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

 गीता १८.६१

जो हमारे अन्तर्देशके निवृत्त-प्रदेशमें सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूपस विराजमान भगवान् हैं, वे भक्तिके द्वारा पकड़े जाते हैं और फिर भक्तिक वशमें होकर भक्तका पक्षपात करते हैं!
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ॐ शान्तिः शान्तिः!! शान्तिः!!!
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