श्रीमद् भागवत महापुराण कथा,shrimad bhagwat mahapuran katha
श्रीमद् भागवत महापुराण कथा
shrimad bhagwat mahapuran katha
[ भाग-6,part-6 ]
[ प्रथम स्कंध ]
आपने मेरी कुलवधू उत्तरा के गर्भ की रक्षा की है, मेरे वंशधर की रक्षा की है। प्रभु ! ये तो सबके आँखों के सामने की अभी-अभी की घटना है। भगवान् बोले, बुआ! आज इतनी लम्बी-चौड़ी मेरी महिमा आखिर क्यों गा रही हो? क्या बात है? अपने भतीजे को भगवान् बनाकर खड़ा कर दिया। क्या बात है?
कुन्ती मैया बोलीं, आज कुछ माँगना चाहती हूँ। प्रभु! जब-जब संकट आये तो, आप मेरे सामने आये। दुर्वासाजी के उग्र-शाप का भय जब लगा कि भोजन का निमंत्रण कर दिया और दाना एक नहीं खाने का? अक्षयपात्र भी खाली हो गया। तब तुरन्त आप सामने आये दिखाई पड़ गये।
जब भी संकट आये, तब आप भी हमारे सामने आये। आज सारे संकट भाग गये, मेरा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट के पद पर विभूषित हो रहा है। दुःखों के बादल हट गये हैं और जहाँ सुख-साम्राज्य आया, सो ही आप हाथ जोड़कर बोले कि बुआ चलता हूँ!
तो प्रभु ! मैं तो यही वरदान मांगगी कि यदि विपत्तिकाल में ही आप हमारे पास रहते हो और सुख-समृद्धि आते ही हमें छोड़कर चले जाते हो, तो मैं वरदान माँगना चाहती हूँ कि जीवनभर इस कुन्ती के जीवन में संकटों के बादल हमेशा छायें रहें, मेरे जीवन में कभी विपत्ति का अंत न हो।
जब भी संकट आये, तब आप भी हमारे सामने आये। आज सारे संकट भाग गये, मेरा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट के पद पर विभूषित हो रहा है। दुःखों के बादल हट गये हैं और जहाँ सुख-साम्राज्य आया, सो ही आप हाथ जोड़कर बोले कि बुआ चलता हूँ!
तो प्रभु ! मैं तो यही वरदान मांगगी कि यदि विपत्तिकाल में ही आप हमारे पास रहते हो और सुख-समृद्धि आते ही हमें छोड़कर चले जाते हो, तो मैं वरदान माँगना चाहती हूँ कि जीवनभर इस कुन्ती के जीवन में संकटों के बादल हमेशा छायें रहें, मेरे जीवन में कभी विपत्ति का अंत न हो।
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥
(भा. 1/8/25)
जबतक जीवन है, तबतक विपत्ति इसी प्रकार आती रहे, जैसी-आती रही थी। भगवान् बोले, जय हो बआजी! कितने वर्षो तक विपत्ति का कष्ट भोगा? लोग विपत्ति के नाम से कांपते हैं और आप विपत्ति का वर चाहती हैं? कुन्ती मैया कहती हैं, उस विपत्ति में ही तो बार-बार आपके दर्शन मिलते हैं।और केवल आपके ही दर्शन नहीं मिलते, अपुनर्भवदर्शनम्' जिसे आपके दर्शन मिल गये, उसे फिर बार-बार भव-दर्शन नहीं होता। अथवा 'अपुनर्भवानाम् जीवनमुक्तानाम् दर्शनम् इति अपुनर्भवदर्शनम्'। जहाँ भी प्रभु पधारते हैं, जीवनमुक्त संत भी उनके पीछे-पीछे भागते हैं। बड़े-बड़े सिद्धकोटि के संत और देवता भगवान् के आगे-पीछे दौड़ते रहते हैं।
तो जब भगवान् इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों के पास आ जाते हैं, आये दिन एक-से-एक सिद्धकोटि के संत भगवान् से मिलने के बहाने आया करते हैं। इसलिए कुन्तीमैया कहती हैं कि आपके ही दर्शन नहीं होते, बड़े सिद्धकोटि के संतों का भी आपके साथ-साथ दर्शन होता रहता है।
श्रीमद् भागवत महापुराण कथा
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इसलिये चाहती हूँ कि विपत्ति बनी रहे, ताकि बिहारीजी भी बने रहें और बड़े-बड़े सिद्धकोटि के संत भी यहाँ पर पधारते रहें। क्योंकि आप तो अकिंचनों के ही परमधन हो। जो धन-सम्पदा में ही अपना सब कुछ मान बैठते हैं, उसमें मिथ्याभिमान कर लेते हैं, उनसे तो आप दूर हो जाते हो।प्रभो! याद आता है वह दिव्य क्षण, जब मैया की मटकी फोड़ दिये थे। मैया ने कान पकड़कर आपको ऊखल से बाँध दिया था। कैसे आँखें मींड़-मीड़कर आंसू बहा रहे थे! वह दृश्य जब मेरे चिंतन में आता है, तो मैं सोचती हूँ कि क्या यही वह नारायण है, जिसकी टेड़ी भृकुटी होने पर स्वयं काल भी कांप जाता है? मूर्तिमान् भय भी जिससे भयाक्रान्त रहता है, वह भगवान् देखो आज ऊखल में बंधा हुआ रो रहा है। कौन कल्पना कर लेगा कि ये वही परमतत्त्व है?
वह दृश्य मेरे मन को मोहित कर देता है कि ये कैसा भगवान् है, जो ऊखल में बंधा रो रहा है। अरे। परमात्मा की तो दृष्टिपात मात्र से संसार के बंधन खुल जाते हैं। और वह परमात्मा ! खुद बंधा हुआ है? वह दृश्य मेरे मन को मोहित कर देता हैं, मैं व्यामोहित हो जाती हूँ। बस प्रभु! अब एक ही प्रार्थना है,
स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु
मेरा मन जो पाण्डवों में थोड़ा चिपका हुआ है, जो स्नेहपाश पाण्डवों में बंधा हुआ है और वृष्णिवंशियों (यदुवंशियों) में जहाँ मैं पैदा हुई, वसुदेव आदि भाईयों के प्रति – इन दोनों रस्सियों को आप काट डालो। पर आप अपने चरणकमलों में मेरे चित्त को लगा लो, स्नेहपाश आपके अतिरिक्त कहीं मेरा बंधा न हो, सब जगह की डोरी काट दो।
कुन्ती मैया ने जब ये दिव्य भावना प्रकट की, तो भगवान् गद्गद् हो गये। प्रसन्न होकर बोले, बुआ! यदि इतना आपका प्रेम है, तो अब हम द्वारिका जाते ही नहीं। और भगवान् ने तुरन्त द्वारका की यात्रा स्थगित की। कुन्ती बुआ के साथ उनके भवन में प्रविष्ट हो गये।
श्रीमद् भागवत महापुराण कथा
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कुन्ती मैया ने ऐसी चीज मांगी, जो भगवान् के पास थी ही नहीं, दुःख। भगवान् तो आनन्दसिन्धु-सुखराशि हैं। वे दुःख कहाँ से देंगें? जो साक्षात् सच्चिदानन्द है, वह दुःख देना भी चाहे, तो भी कहाँ से दे पायेगा? उसके खजाने में है ही नहीं। और जो दु:खरूप संसार है, उससे तुम जीवनभर सुख माँगते रहोगे, वह कहाँ दे पायेगा?
क्योंकि दुःखरूप संसार में सुख है ही नहीं। जब भगवान् को लगा कि बुआ ने माँगा दुःख और मैं दे नहीं पाया, क्योंकि देना सम्भव ही नहीं है। इसलिये भगवान् ने स्वयं को ही दे दिया कि बुआ ! हम आपके साथ ही चलते हैं। पाण्डवों में आनन्द की लहर छा गई चलो! चलते-चलते प्रभु को बुआ के प्रेम ने रोक लिया भवन में आये।
भीष्म स्तुति :-
क्योंकि दुःखरूप संसार में सुख है ही नहीं। जब भगवान् को लगा कि बुआ ने माँगा दुःख और मैं दे नहीं पाया, क्योंकि देना सम्भव ही नहीं है। इसलिये भगवान् ने स्वयं को ही दे दिया कि बुआ ! हम आपके साथ ही चलते हैं। पाण्डवों में आनन्द की लहर छा गई चलो! चलते-चलते प्रभु को बुआ के प्रेम ने रोक लिया भवन में आये।
भीष्म स्तुति :-
एक दिन प्रभु ने देखा कि श्रीयुधिष्ठिरजी महाराज थोड़े-से चिन्तित बैठे हैं, बहुत परेशान दिखाई पड़ते हैं। प्रभु ने पूछा, क्या बात है भैया? समस्त शत्रुओं का पराभव करके आज सम्राट की पदवी को विभूषित कर रहे हो, फिर भी मुँह लटकाये बैठे हो? युधिष्ठिरजी भी व्यामोहित हो उठे, हे प्रभु! ज़रा बताओ।
जिन महापुरुषों की उंगली पकड़कर चलना सीखा, जिनकी गोदी में खेले, जिनको हमेशा दण्डवत् प्रणाम किया, मैंने उन्हीं सबको समाप्त करके इस गद्दी को पाया है। हमारे कितने स्नेहीजन थे, प्रेमीजन थे, उन सबको मार कर उनकी स्त्रियों का सिंदूर हमने उजाड़ दिया।
जब वह विधवा स्त्रियां मेरी आँखों के सामने आती हैं, तो मेरा चित्त व्यथित हो जाता है कि इस गद्दी के लिए मैंने उनका सुहाग उजाड़ दिया? मोहग्रसित हो गये। भगवान् विविध भाँति उन्हें समझाने लगे। पर युधिष्ठिरजी की समझ में बात आती ही नहीं।
क्योंकि युधिष्ठिरजी श्रीद्वारकाधीश प्रभु को अपना छोटा भैया मानते हैं, वात्सल्य भाव रखते हैं, अनुज की भावना है। और उपदेश तब प्रभावित होता है, जब उपदेशक के प्रति गुरुत्व की भावना हो। यही प्रवचन कोई सफेद दाढ़ी वाला बोले, तो ज्यादा समझ में आयेगा। भगवान् समझ गये कि इन्हें किसी बुजुर्ग के पास ले जाना चाहिए। भगवान् बोले, तो चलो! पितामह भीष्म से मिलने चलते हैं।
जिन महापुरुषों की उंगली पकड़कर चलना सीखा, जिनकी गोदी में खेले, जिनको हमेशा दण्डवत् प्रणाम किया, मैंने उन्हीं सबको समाप्त करके इस गद्दी को पाया है। हमारे कितने स्नेहीजन थे, प्रेमीजन थे, उन सबको मार कर उनकी स्त्रियों का सिंदूर हमने उजाड़ दिया।
जब वह विधवा स्त्रियां मेरी आँखों के सामने आती हैं, तो मेरा चित्त व्यथित हो जाता है कि इस गद्दी के लिए मैंने उनका सुहाग उजाड़ दिया? मोहग्रसित हो गये। भगवान् विविध भाँति उन्हें समझाने लगे। पर युधिष्ठिरजी की समझ में बात आती ही नहीं।
क्योंकि युधिष्ठिरजी श्रीद्वारकाधीश प्रभु को अपना छोटा भैया मानते हैं, वात्सल्य भाव रखते हैं, अनुज की भावना है। और उपदेश तब प्रभावित होता है, जब उपदेशक के प्रति गुरुत्व की भावना हो। यही प्रवचन कोई सफेद दाढ़ी वाला बोले, तो ज्यादा समझ में आयेगा। भगवान् समझ गये कि इन्हें किसी बुजुर्ग के पास ले जाना चाहिए। भगवान् बोले, तो चलो! पितामह भीष्म से मिलने चलते हैं।
समस्त पाण्डव-परिकर को लेकर प्रभु पधारे। पितामह भीष्म बाणों की शय्या पर लेटे हैं। जैसे-ही पाण्डवों ने आकर प्रणाम किया, नेत्र खोलकर देखा। शरीर का हिलना-डुलना भी सम्भव नहीं है, असह्य पीड़ा हो रही है। सामने अर्जुन दिखाई पड़ गये, अरे अर्जुन ! तुम्हारा सारथी नहीं आया क्या? प्रभु तुरन्त सम्मुख आ गये, दादाजी! मुझे याद किया क्या? भीष्म बोले अच्छा-अच्छा !
तो आप आये हो! फिर छुपकर क्यों खड़े हा, तनिक सामने आओ! भगवान् तुरन्त सामने आ गये, कहिये दादाजी! कैसे याद किया? पितामह भीष्म बोले अर्जुन! पहचानते हो इन्हें? अर्जुन बोले, इन्हें कौन नहीं जानता दादाजी! भीष्मजी ने कहा, कौन हैं ये तो बताओ? अर्जुन बोले, हमारे मामा वसुदेवजी के पुत्र वासुदेव कृष्ण हैं।
पितामह भीष्म हंसने लगे, वाह! अर्जुन कभी तो तुम मामा का लड़का बताते हो, कभी अपना सचिव बनाकर परामर्श लेते हो, कभी दूत बनाकर संदेश-वाहक बना देते हो, कभी गुरुजी बनाकर गीता का ज्ञान ले लेते हो, कभी सारथी बनाकर घोड़ों की लगाम थमा देते हो। कितने नाते हैं तुम्हारे?
तो आप आये हो! फिर छुपकर क्यों खड़े हा, तनिक सामने आओ! भगवान् तुरन्त सामने आ गये, कहिये दादाजी! कैसे याद किया? पितामह भीष्म बोले अर्जुन! पहचानते हो इन्हें? अर्जुन बोले, इन्हें कौन नहीं जानता दादाजी! भीष्मजी ने कहा, कौन हैं ये तो बताओ? अर्जुन बोले, हमारे मामा वसुदेवजी के पुत्र वासुदेव कृष्ण हैं।
पितामह भीष्म हंसने लगे, वाह! अर्जुन कभी तो तुम मामा का लड़का बताते हो, कभी अपना सचिव बनाकर परामर्श लेते हो, कभी दूत बनाकर संदेश-वाहक बना देते हो, कभी गुरुजी बनाकर गीता का ज्ञान ले लेते हो, कभी सारथी बनाकर घोड़ों की लगाम थमा देते हो। कितने नाते हैं तुम्हारे?
यं मन्यसे मातुलेयं प्रियं मित्रं सुहृत्तमम् ।
अकरोः सचिवं दूतं सौहृदादथ सारथिम् ॥
(भा. 1/9/20)
धन्य है प्रभु ! आपके प्रेमी। जो बनाते हैं, आप वही बन जाते हो, जो चाहो भगवान् वही बन जाते हैं। भगवान् सेवक बनने को भी तैयार हैं, कोई सेवक बनाने वाला तो मिले। तो पितामह भीष्म स्मरण कर रहे हैं, अर्जुन !तुमने इन्हें क्या-क्या नहीं बनाया? भगवान् की ओर इशारा करते हुए पितामह भीष्म कहते हैं, प्रभो ! अब एक अन्तिम इच्छा मुझ दास की भी पूरी कर दो। हे प्रभो! ये देह बाणों की शय्या पर आपके दर्शन की प्रतीक्षा में इसलिये पड़ा था कि जबतक आप नहीं पधारेंगे, तबतक मैं जाने वाला नहीं हूँ।
प्रतीक्षा करवाकर आप आये हो, तो थोड़ी-सी प्रतीक्षा मैं भी आपको कराना चाहता हूँ। मैं यही चाहता हूँ कि जबतक मैं न चला जाऊँ, तबतक आप भी ऐसे ही खड़े रहें।
श्रीमद् भागवत महापुराण कथा
shrimad bhagwat mahapuran katha
हे प्रभो! मरना कोई अपनी इच्छा से नहीं होता। यदि अपने इच्छा से ही मृत्यु होती, तो शायद कोई भी मरना ही नहीं चाहता। परन्तु पितामह भीष्म को स्वेच्छा-मृत्यु का वर प्राप्त है। वह जबतक न जाना चाहें, तबतक उन्हें मौत भी नहीं मार सकती। इसलिये कहते हैं कि जबतक मैं इस कलेवर को त्यागकर न जाऊँ, तबतक प्रतीक्षा कीजिये और ऐसे ही खड़े रहिये।
भगवान् ने मन में सोचा अच्छी ड्यूटी लगाई हमारी। अब भगवान् जाने किस सम्वत् में ये जाने का विचार बनावें? और कबतक खड़ा रहना पड़े? जहाँ मुँह लटकाया कि पितामह भीष्म ने कहा, महाराज सुनिये! ये लटका हुआ चेहरा देखने के लिये थोड़े ही खड़ा कर रहा हूँ। जबतक खड़े हैं, तबतक मुस्कुराते रहो महाराज! आपकी मुस्कान में अद्भुत चमत्कार है।
भगवान् ने मन में सोचा अच्छी ड्यूटी लगाई हमारी। अब भगवान् जाने किस सम्वत् में ये जाने का विचार बनावें? और कबतक खड़ा रहना पड़े? जहाँ मुँह लटकाया कि पितामह भीष्म ने कहा, महाराज सुनिये! ये लटका हुआ चेहरा देखने के लिये थोड़े ही खड़ा कर रहा हूँ। जबतक खड़े हैं, तबतक मुस्कुराते रहो महाराज! आपकी मुस्कान में अद्भुत चमत्कार है।
लखी जिन लाल की मुस्कान। तिनहि विसरी वेद विध सब योग संयम ज्ञान । नेम व्रत आचार पूजा पाठ गीता ज्ञान। रसिक भगवद दृग दई असि एचि के मुख म्यान॥ भगवान् की मुस्कान जिसने एक बार देख ली--
हासं हरेरवनिताखिललोकतीव्र शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम्।
मानव के जीवन में जो शोकसागर है, वह सब सूख जाता है। भगवान् की मुस्कान को देखते ही खारा-पानी जो भरा है, वह खाली हो जाता है। और प्रभु की मुस्कान का दर्शन करते ही उस पात्र में दिव्य प्रेमामृत भर जाता है। भगवान् की मुस्कान पर मुग्ध हो गये श्रीपितामह भीष्म।धर्मराज की ओर इशारा किया प्रभु ने, आप पूछ लीजिये भाई! जो कुछ आपके मन में संकल्प हों, विकल्प हों, कोई प्रश्न हों तो पछिये । यधिष्ठिरजी महाराज प्रश्न करने लगे, पितामह भीष्म उत्तर देने लगे। बड़ा अद्भुत उपदेश दिया, इसे महाभारत में भीष्मगीता कहते हैं। जैसे महाभारत में भगवद्गीता है, ऐसे ही ये भीष्मगीता है।
श्रीमद् भागवत महापुराण कथा
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