bhagwat katha in hindi,भागवत कथा इन हिंदी
bhagwat katha in hindi
भागवत कथा इन हिंदी
[ भाग-7,part-7 ]
[ प्रथम स्कंध ]
दानधर्मान् राजधर्मान मोक्षधर्मान् विभागशः ।
स्त्रीधर्मान् भगवद्ध र्मान् समासव्यासयोगतः ॥
(भा. 1/9/27)
समस्त धर्मो का बृहद् व्याख्यान किया, पर किसी को संक्षेप में भी कहा, किसी को विस्तार से। दिव्यधर्म के मर्म को जानकर युधिष्ठिरजी महाराज सहित समस्त पाण्डवों का शोक दूर हो गया। अब शुक्ल-का दिन आ गया। पितामह भीष्म को लगा, अब बढ़िया समय है, सूर्य उत्तरायण हो चुके हैं और प्रभ सामने खड़े हैं।माघ शुक्ल इससे शुभ घड़ी और कब आयेगी? उत्तरायण काल की प्रतीक्षा थी, पितामह भीष्म को वह पूरी हो गई। छः महीने उत्तरायण और छ: महीने दक्षिणायन में रहते हैं सूर्य भगवान्। देवताओं के लिए दक्षिणायन ही रात्रि है, उत्तरायण ही दिन है।
किसी के घर में दिन में जाओ, तो दरवाजे खुल जायेंगे और रात में जाओ, तो सवेरे तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तो दक्षिणायन में जो देहत्याग करके जाते हैं, उन्हें दरवाजे बंद मिलते हैं। और उत्तरायण में जाने वालों को दरवाजे खुले मिलते हैं, ऐसी शास्त्रीय मान्यता है।
सो पितामह भीष्म को उत्तरायण की प्रतीक्षा थी। और इधर हमारे प्रभु भी तो उत्तरायण हैं (उत्तरा के गर्भ में जाकर परीक्षित की रक्षा करने वाले भगवान् उत्तरायण)। भगवान् जिसके सम्मुख विराजमान हों, उसी काल को उत्तरायण काल कहेंगे।
और भगवान् जिससे विमुख हो जायें तो जीव के लिये वही दक्षिणायन काल है। तो सूर्य भी उत्तरायण है और गोविन्द भी उत्तरायण हैं, दोनों सम्मुख उपस्थित हैं। इसलिये अब देर करने की आवश्यकता नहीं।
और भगवान् जिससे विमुख हो जायें तो जीव के लिये वही दक्षिणायन काल है। तो सूर्य भी उत्तरायण है और गोविन्द भी उत्तरायण हैं, दोनों सम्मुख उपस्थित हैं। इसलिये अब देर करने की आवश्यकता नहीं।
पितामह भीष्म ने एकादश श्लोकों से भगवान् की स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया। पुष्पिताग्रा छन्द में स्तुति कर रहे हैं। बाबा भीष्म विचार करने लगे कि प्रभु के चरणों में पुष्प चढ़ाने के लिये कहीं से लाऊँ ? तो अपने वचनों के ही सुमन पुष्पिताग्रा छन्द में समर्पित है।
इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा भगवति सात्वतपुंगवे विभूम्नि ।
स्वसुखमुपगते क्वचिद्विहर्तुं प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाहः ॥
(भा. 1/9/32)
ये पितामह भीष्म के द्वारा बड़ी मधुर स्तुति है। पितामह भीष्म कहते हैं, प्रभो! इस देहयात्रा को सम्पन्न करने से पूर्व बस एक ही छोटी-सी इच्छा है कि अपनी अविवाहिता बेटी का विवाह और कर देता। बेटी कुंआरी छोड़कर जाऊँगा, तो अधूरापन रहेगा। बेटी का सुन्दर वर ढूँढते-ढूँढ़ते परेशान हो गया, कोई मिलता ही नहीं ?भगवान् मुस्कुराये, बाबा ! विवाह तो तुम्हारा ही नहीं हुआ? फिर तुम्हारी ये बेटी कहाँ से आ गई, जिसकी चिन्ता तुम्हें पड़ी है? पितामह भीष्म कहते हैं, ये जो मेरी बुद्धि है, इसी को मैंने अपनी बेटी बना लिया है।
अच्छा ! तो वर नहीं मिलता? बहुत ढूँढ़ा। बेटी जैसी पढ़ी-लिखी हो सुशील हो, वर भी तो वैसा ही होना चाहिये। भगवान् बोले, क्यों! तुम्हारी बेटी कोई ज्यादा पढ़ी-लिखी है क्या? भीष्म बाबा बोले, महाराज! ऐसी बेटी आपको दुनिया में नहीं मिलेगी, कहीं नहीं मिल सकती।
मेरी मति में सबसे बड़ी योग्यता ये है कि इसमें कोई तृष्णा नहीं है। संसार में किसकी बुद्धि है, जिसमें तृष्णा न हो। कोई वित्तषणा से ग्रसित है, कोई पुत्रैषणा से, कोई लोकेषणा से।
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भागवत कथा इन हिंदी
सुत वित लोक ईशना तीनी।
केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ॥ (मानस)
सबकी मति तृष्णा से ग्रसित है। पर प्रभु! मेरी मति में कोई तृष्णा नहीं है। और ऐसी निर्मल मति का पति संसार में ढूँढने पर कहीं नहीं मिला। पर आपको देखकर आज लग रहा है कि मिल गया! अब ये खोज मरा@समाप्त हो गई। प्रभु! आपके-जैसे सुन्दर वर को भी तो वधू की आवश्यकता रहती है।आप कहते हो, 'मयि बुद्धिम् निवेशयः' - अत: यह निर्मल-मति आपको समर्पित है प्रभो! त्रिभुवनकमनीय आपकी इस श्याम छटा पर पीत-पीताम्बर ऐसा दमक रहा है, जैसे तमाल वृक्ष की श्याम-छटा पर सूर्य की रश्मियां पडने पर जो दिव्य-शोभा होती है, वही आपके इस श्याम-विग्रह पर पीताम्बर की शोभा हो रही है। याद आता है वह क्षण, जब युद्ध में अर्जुन आपको आदेश देता था--
सेनायोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।
दोनों सेनाओं के बीच मेरे रथ को ले चलो। देखू तो सही कि मुझसे युद्ध करने कौन-कौन आये हैं? तब भगवान् घोड़े हांकने लगे। जहाँ दोनों विशाल सेनाओं के बीच में रथ को खड़ा किया और भगवान् बोले, अर्जुन ! देख लो।हम तो बीच में ही आकर खड़े हैं। अब तुम भी बीच में ही खड़े रहना, इधर-उधर मत डगमगा जाना। पर जब अर्जुन ने देखा तो डगमगा गया, हाथ-पांव फूल गये राम! राम ! जिनके चरण छूता था, जिनकी गोदी में खेलता था, जिनकी उंगली पकड़कर चलता था, क्या मुझे इनसे युद्ध करना पड़ेगा? क्या इन्हें मारना पड़ेगा? अर्जुन का हृदय कांप गया।
पितामह भीष्म एक रहस्य और उद्घाटित कर रहे हैं, प्रभो ! अर्जुन तो अपने से लड़ने वालों को देख रहे थे, पर आप भी तो टुकुर-टुकुर सब पर दृष्टि डाल रहे थे। आपने क्यों दृष्टिपात किया, आप क्या देख रहे थे? मैं जानता था कि आप क्यों देख रहे हैं।
प्रभु ने पूछा, क्यों देख रहा था मैं? आप ही बताओ! भीष्म बाबा बोले, प्रभु! आपने समस्त कौरवों पर दृष्टि डालकर उनकी आयु का हरण कर लिया। भगवान् के नेत्रों में ही चमत्कार है, जिस पर दृष्टि डाल दें तो किसी की आयु खींच लेते हैं, किसी को आयु दे देते हैं। किसी का पराक्रम छीन लेते हैं, किसी को पराक्रम प्रदान कर देते हैं।
प्रभु ने पूछा, क्यों देख रहा था मैं? आप ही बताओ! भीष्म बाबा बोले, प्रभु! आपने समस्त कौरवों पर दृष्टि डालकर उनकी आयु का हरण कर लिया। भगवान् के नेत्रों में ही चमत्कार है, जिस पर दृष्टि डाल दें तो किसी की आयु खींच लेते हैं, किसी को आयु दे देते हैं। किसी का पराक्रम छीन लेते हैं, किसी को पराक्रम प्रदान कर देते हैं।
कालियदह के विषाक्त-जल को गायों ने पी लिया तो छटपटाकर सब अचेत हो गयीं। भगवान् ने दृष्टि डाली और सबको खड़ा कर दिया। अघासुर के मुख में व्रजवासी सब मूर्छित हो गये, मरणासन्न हो गये।
दृष्टि डाली तो सबको पुनर्जीवित कर दिया। कंस के वध के बाद जितने यदुवंशी लौटकर अपने घर में आये, बेचारे निर्बल कमजोर कृषकाय हो गये। भगवान् ने दृष्टि डाली और--
दृष्टि डाली तो सबको पुनर्जीवित कर दिया। कंस के वध के बाद जितने यदुवंशी लौटकर अपने घर में आये, बेचारे निर्बल कमजोर कृषकाय हो गये। भगवान् ने दृष्टि डाली और--
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भागवत कथा इन हिंदी
पिबन्तोऽक्षर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहुः।
गोविन्द के मुखकमल की दिव्य आभा-प्रभा को देखकर, उस दिव्य रूपसुधा का पान करके सब पहलवान हो गये। बताइये! किसी को बल-पराक्रम और आयु दे रहे हैं, किसी का बल-पराक्रम और आयु को छीन रहे हैं - आँखों में सारे चमत्कार हैं।परन्तु अर्जुन व्यामोहित जब हो उठा, 'स्वजनवधात् विमुखस्य दोषबुद्ध्याः ' अबतक अर्जुन ने सैकड़ों युद्ध किये, बड़े-बड़े युद्धों पर विजय प्राप्त की पर आज जब अपनों से लड़ने की बात आई, तो हाथ-पाँव फूल गये।
बुद्धि में कुमति आ गई, इसलिये भगवान् ने तुरन्त आत्मविद्या गीता का दिव्योपदेश देकर अपने प्यारे सखा की कुमति का हरण कर लिया। बुद्धि में जो अज्ञान के बादल छा गये थे, वह हटा दिये अपने दिव्यज्ञान के प्रकाश से ऐसे हे विजयसखा ! हे गोविन्द ! आपके पादपद्मों में मेरी खूब रति हो प्रीति हो।
पितामह भीष्म अपनी वह घटना याद कर रहे हैं, प्रभु ! वह भी दिन भूलूंगा नहीं। मेरी प्रतिज्ञा और आपकी प्रतिज्ञा आपस में टकरा गई। आपका प्रण था कि मैंहथियार नहीं लूंगा, महाभारत में अस्त्र धारण नहीं कर
और मैंने प्रतिज्ञा कर डाली कि या तो अर्जुन का प्राण जायेगा या प्रभु का प्रण। अब देखें दोनों में से क्या जाना है।
तो अपने भक्त के प्राण रखने और इस भक्त के वचन को रखने के लिये, आपने अपना ही प्रण छोड दिया मैं जानता था प्रभु! जब-जब भक्त और भगवान् की प्रतिज्ञायें यदि आपस में टकरा जायें, तब-तब भी सामने भगवान ही अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ते हैं।
कभी-कभी पिता-पुत्र में बहस हो जाये, तो पत्र का संतोष खन के लिए पिताजी कहते हैं, अच्छा तू जो कह रहा है, वही ठीक है। बच्चों का मन रख देते हैं। प्रभो! तीखे-तीखे बाण मैंने चलाये, तो आप अपने रथ के पहिया को ही सुदर्शन चक्र बनाकर मुझे मारने के लिये दौड़ पड़े--
तो अपने भक्त के प्राण रखने और इस भक्त के वचन को रखने के लिये, आपने अपना ही प्रण छोड दिया मैं जानता था प्रभु! जब-जब भक्त और भगवान् की प्रतिज्ञायें यदि आपस में टकरा जायें, तब-तब भी सामने भगवान ही अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ते हैं।
कभी-कभी पिता-पुत्र में बहस हो जाये, तो पत्र का संतोष खन के लिए पिताजी कहते हैं, अच्छा तू जो कह रहा है, वही ठीक है। बच्चों का मन रख देते हैं। प्रभो! तीखे-तीखे बाण मैंने चलाये, तो आप अपने रथ के पहिया को ही सुदर्शन चक्र बनाकर मुझे मारने के लिये दौड़ पड़े--
धृतरथचरणोऽभ्ययाच्चलदगुर्हरिरिव पृथ्वी कांप गयी ! आपका पीताम्बर नीचे गिर गया, आपके लाल-लाल नेत्र क्रोध में भरे, जब मुझे मारने को दौड़े - वह छटा आज भी मेरी आँखों में बसी है। प्रभु ! ऐसे लग रहे थे, जैसे किसी गजराज को मारने के लिए किसी सिंह ने आक्रमण कर दिया हो। क्रोध में भरा जैसे सिंह किसी गजराज पर झपट पड़ता है, ऐसे ही वह छटा, आज भी मेरी आँखों में बसी है।
पृथ्वी क्यों कांप गयी? पीताम्बर क्यों नीचे गिर गया? इस पर एक भक्त बड़ी सुन्दर भावना प्रकट करते हैं कि पृथ्वी इसलिये कांप गई कि इनका कोई भरोसा नहीं, ये तो प्रतिज्ञा करते हैं और भूल भी जाते हैं।
अरे! महाभारत में अभी-अभी प्रतिज्ञा की, अस्त्र नहीं लूंगा और उठा लिया ! फिर मुझे भी तो इन्होंने प्रतिज्ञापूर्वक वचन दिया था कि देवी घबड़ाना मत। मैं आऊँगा, तेरा भार दूर करूंगा। इन्होंने वचन दिया, मैं सुनकर निश्चिन्त् हो गई कि अब मेरा भार प्रभु निश्चित् दूर करेंगे।
इन्होंने मुझसे प्रतिज्ञा की है। पर जब ये देखा कि ये प्रतिज्ञा भूल भी जाते हैं, तो पृथ्वी घबड़ा गई, मेरी तो बहुत पुरानी प्रतिज्ञा है, कहीं उसे भी न भूल गये हों। इन्हें कैसे याद दिलाऊँ कि मेरा भी प्रण याद है या उसे भी भूल गये? इसलिये पृथ्वी कांप गई। तो भगवान् ने अपने उत्तरीय को आदेश दिया कि जाओ-जाओ! इसे समझाओ। ये बिल्कुल न घबड़ाये, इसका प्रण मुझे याद है अरे ! इसके लिए ही तो आया हूँ, मैं यहाँ पर।
इसलिये पीताम्बर मानो उछल पड़ा, प्रभु के आदेश पर भूदेवी को समझाने के लिए कि देवी! घबड़ाना मत। ये तो प्रभु के भक्तों के बीच में लीला चल रही है, तेरा प्रण भूलने वाले नहीं हैं। तू तो उनकी प्रिया है, तो मानों पीताम्बर पृथ्वी को आश्वासन प्रदान करने के लिए कूद पड़ा !
इस प्रकार पितामह भीष्म ने बड़े सुन्दर भावपूर्ण शब्दों से भगवान् की स्तुति की। और वह नैष्ठिक ब्रह्मचारी श्रीपितामह भीष्म आज प्राणान्तकाल में भगवान् के उस दिव्य रसमय-रास का दर्शन करने लगे।
अरे! महाभारत में अभी-अभी प्रतिज्ञा की, अस्त्र नहीं लूंगा और उठा लिया ! फिर मुझे भी तो इन्होंने प्रतिज्ञापूर्वक वचन दिया था कि देवी घबड़ाना मत। मैं आऊँगा, तेरा भार दूर करूंगा। इन्होंने वचन दिया, मैं सुनकर निश्चिन्त् हो गई कि अब मेरा भार प्रभु निश्चित् दूर करेंगे।
इन्होंने मुझसे प्रतिज्ञा की है। पर जब ये देखा कि ये प्रतिज्ञा भूल भी जाते हैं, तो पृथ्वी घबड़ा गई, मेरी तो बहुत पुरानी प्रतिज्ञा है, कहीं उसे भी न भूल गये हों। इन्हें कैसे याद दिलाऊँ कि मेरा भी प्रण याद है या उसे भी भूल गये? इसलिये पृथ्वी कांप गई। तो भगवान् ने अपने उत्तरीय को आदेश दिया कि जाओ-जाओ! इसे समझाओ। ये बिल्कुल न घबड़ाये, इसका प्रण मुझे याद है अरे ! इसके लिए ही तो आया हूँ, मैं यहाँ पर।
इसलिये पीताम्बर मानो उछल पड़ा, प्रभु के आदेश पर भूदेवी को समझाने के लिए कि देवी! घबड़ाना मत। ये तो प्रभु के भक्तों के बीच में लीला चल रही है, तेरा प्रण भूलने वाले नहीं हैं। तू तो उनकी प्रिया है, तो मानों पीताम्बर पृथ्वी को आश्वासन प्रदान करने के लिए कूद पड़ा !
इस प्रकार पितामह भीष्म ने बड़े सुन्दर भावपूर्ण शब्दों से भगवान् की स्तुति की। और वह नैष्ठिक ब्रह्मचारी श्रीपितामह भीष्म आज प्राणान्तकाल में भगवान् के उस दिव्य रसमय-रास का दर्शन करने लगे।
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ललितगतिविलासवल्गुहासप्रणयनिरीक्षणकल्पितोरूमानाः।
कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धा: प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः॥
(भा. 1/9/40)
पितामह भीष्म गोपवधूटियों के बीच में विहार करते हुए उन विहारीजी का स्मरण कर रहे हैं। कल्पना कीजिये कि नैष्ठिक व्रतधारी श्रीपितामह भीष्म जब भगवान् के उस महारास का स्मरण करें, तो महारास कोई प्राकृत होगा? कोई साधारण होगा? अन्तकाल में पितामह भीष्म योगेश्वरेश्वर श्रीकृष्ण की उस अद्भुत लीला का ध्यान कर रहे हैं।भगवान् के द्वारा मन्द-मन्द मुस्कुराना, तिरछी चितवन से गोपियों के चित को चुराना, मद गति से ठुमका मारकर चलना और नाचना उन समस्त एक-एक चेष्टाओं के द्वारा गोपियों के चित्त को चुराने वाले प्रभु का ध्यान कर रहे हैं।
अब उस दिव्य छटा का ध्यान करते-करते, सबके हृदय में हरि का दर्शन करते पितामह भीष्म ने पांचभौतिक देह त्यागा और भगवान् के परमपद को प्राप्त हो गये। 'सर्वे बभूवुस्ते तूष्णीम्' पितामह भीष्म के महाप्रयाण के समय सब शान्त हो गये मानो सूर्यास्त होते ही पक्षियों का कलरव शान्त हो जाता है। और थोड़ी ही देर में--
तत्र दुन्दुभयो नेदुर्देवमानववादिताः।
आकाश में अचानक दुंदभियां बजने लगीं, पितामह भीष्म के ऊपर सुमन-वृष्टि होने लगी। सारे जगत् ने पितामह भीष्म के सौभाग्य की सराहना की, वाह ! हर प्राणी यही तो चाहता है कि जब मेरा अन्तकाल आवे तो प्यारे का नाम मुँह पर आ जावे, उनकी छटा आँखों के सामने होवे।आज सब कुछ पितामह भीष्म को प्राप्त हो गया, माधव मन्द-मन्द मुस्कुराते पीताम्बर लहराते आँखों के सामने खड़े हैं और उनकी वही बांकी-झांकी हृदयंगम किये, पितामह भीष्म देह त्याग कर रहे हैं। हम भी प्रभु से प्रार्थना करें -
भजन - देहान्तकाले तुम सामने हो, मुरली बजाते मन को लुभाते
द्वारकाधीश प्रभु पाण्डवों के शोक का पितामह भीष्म द्वारा निराकरण करवाकर अपने प्रिय भक्त भीष्म का अन्तिम मनोरथपूर्ण करते हुए, पुनः पाण्डवों से द्वारिका जाने की अनुमति प्राप्त करके चले गये। विविध देशों में परिभ्रमण करते हुए द्वारिका में पधारे।
द्वारिकावासियों ने बड़ा ही दिव्य-भव्य भगवान् का बहुत दिनों के बाद आगमन हुआ है, इसलिये अद्भुत सम्मान किया। सभी से भगवान् यथायोग्य मिले।
द्वारकाधीश प्रभु पाण्डवों के शोक का पितामह भीष्म द्वारा निराकरण करवाकर अपने प्रिय भक्त भीष्म का अन्तिम मनोरथपूर्ण करते हुए, पुनः पाण्डवों से द्वारिका जाने की अनुमति प्राप्त करके चले गये। विविध देशों में परिभ्रमण करते हुए द्वारिका में पधारे।
द्वारिकावासियों ने बड़ा ही दिव्य-भव्य भगवान् का बहुत दिनों के बाद आगमन हुआ है, इसलिये अद्भुत सम्मान किया। सभी से भगवान् यथायोग्य मिले।
शौनकजी ने पूछा, भगवन् ! परीक्षित् का क्या हुआ? उत्तरा के गर्भ की भगवान् रक्षा करके तो गये, उसके बाद में उसका जन्म कैसे हुआ? तब सूतजी को स्मरण आया, अरे ! महात्माओं! ठीक पूछा आपने। भगवान् की कृपा से वह बालक मातृगर्भ में बिल्कुल सुरक्षित रहा। समय आने पर सकुशल उसका जन्म भी हुआ, ब्राह्मणों ने उसका जातकर्म संस्कार किया।
इस बालक का नाम रखते हैं - 'विष्णुरातः - विष्णुना रातः दत्तः' भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) की कृपा से ही माँ के गर्भ में इसकी रक्षा हुई, इसलिये इसका नाम विष्णुरात। पर ये बालक जिसकी गोद में जाता है या इसके सामने जो भी आता है, उसी को टुकुर-टुकुर देखता है, क्या ये वही है जो, मेरी माँ के गर्भ में जो बचाने आय था, वह चार हाथ वाला कौन है? हर चेहरे को ध्यान से देखते थे, इसलिये प्यार से इनका दूसरा नाम पड़ा परीक्षित।
परीक्षित् का अर्थ होता है, 'परितः ईक्षते इति परीक्षितः' न जाने ये चारों तरफ किसे ढूँढ़ता रहता है? तो परीक्षित के नाम से ही बालक विख्यात हुआ।
इस बालक का नाम रखते हैं - 'विष्णुरातः - विष्णुना रातः दत्तः' भगवान् विष्णु (श्रीकृष्ण) की कृपा से ही माँ के गर्भ में इसकी रक्षा हुई, इसलिये इसका नाम विष्णुरात। पर ये बालक जिसकी गोद में जाता है या इसके सामने जो भी आता है, उसी को टुकुर-टुकुर देखता है, क्या ये वही है जो, मेरी माँ के गर्भ में जो बचाने आय था, वह चार हाथ वाला कौन है? हर चेहरे को ध्यान से देखते थे, इसलिये प्यार से इनका दूसरा नाम पड़ा परीक्षित।
परीक्षित् का अर्थ होता है, 'परितः ईक्षते इति परीक्षितः' न जाने ये चारों तरफ किसे ढूँढ़ता रहता है? तो परीक्षित के नाम से ही बालक विख्यात हुआ।
समय आया एक दिन विदुरजी तीर्थयात्रा करते हुए आये। पाण्डवों ने उनका बड़ा भारी सम्मान किया। रात्रि के समय एकान्त पाकर धृतराष्ट्रजी से मिलने विदुरजी गये और पूछा, महाराज! कैसे हैं आप? पाण्डव लोग ठीक-ठाक आपकी सेवा कर रहे हैं कि नहीं? धृतराष्ट्र ने पाण्डवों की प्रशंसा के पुल बाँध दिये, अरे भैया विदर! इतनी सेवा तो मैं अपने दुर्योधन, आदि पुत्रों से भी अपेक्षा नहीं रखता था।
पर मेरे पाण्डव मेरी बड़ी सेवा कर रहे हैं। भोजन बने तो सबसे पहले भीमसेन मुझे भोजन कराने आता है, तब भोजन पाते हैं ये लोग। प्रात:काल जागते ही सबसे पहले मुझे ही दण्डवत् करते हैं, मेरा बड़ा सम्मान है। विदुरजी से नहीं रहा गया, कह बैठे, महाराज !
थोड़ी बहुत शर्म है कि बिल्कुल बेच खाई? इनकी महिमा गाते आपको लज्जा भी नहीं आती? जिन पाण्डवों को मारने के लिए कितने कुचक्र रचे, कितने षडयंत्र रचाये। और आज उन्हीं पाण्डवों के टुकड़ों पर कुत्ते की तरह पड़े-पड़े पूंछ हिला रहे हो?
पर मेरे पाण्डव मेरी बड़ी सेवा कर रहे हैं। भोजन बने तो सबसे पहले भीमसेन मुझे भोजन कराने आता है, तब भोजन पाते हैं ये लोग। प्रात:काल जागते ही सबसे पहले मुझे ही दण्डवत् करते हैं, मेरा बड़ा सम्मान है। विदुरजी से नहीं रहा गया, कह बैठे, महाराज !
थोड़ी बहुत शर्म है कि बिल्कुल बेच खाई? इनकी महिमा गाते आपको लज्जा भी नहीं आती? जिन पाण्डवों को मारने के लिए कितने कुचक्र रचे, कितने षडयंत्र रचाये। और आज उन्हीं पाण्डवों के टुकड़ों पर कुत्ते की तरह पड़े-पड़े पूंछ हिला रहे हो?
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